आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के साहित्य में भारतीय संस्कृति का स्वरूप | Aacharya Hajariprasad Dwivedi Ke Sahitya Mein Bhartiya Sanskriti Ka Swaroop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रेस ये कि किसी से मो सहायता কী জা লহ उससे ये कर्ष्टो কাঁ লতা পা परन्तु उन्होंभि कभी খা ज दः मकसं এ আ ভন কসেকী উদ্তা সহাঁকী। स्वाजहम्बन में हो উকলাদিদা অন্তু হয়া अर्थ यह नहीं कि टिवेदी बो बहकारो ये | उफाप करके वे सवणाय को का रसना उचित गदो माने ध! अनेक उच्च पर्यों को झुशोंमित करमे पा भी उन्डति कनो त्रपते परि चितो আজাাকুল ঘন উ ভীতাঁ। निर्षन, असहाय बादि को उफाय नहीं की । उन्हें प्रतिवा को फचान थी, साहित्य साथना में सहरन व्यक्तियों को प्रोत्साधन ঘর उनकी सहना करने में आत्म-मुझ्ली होते थे । डिवेदी जो में कमी भी इसे के अधहित को स्रोचकर सी अत जित को शुछिलत नहा किया | बोवन कौ उन्होंने सेठ माना । स्वये उन्होंने छिला है -- दुनियां सेह का मेदान है सेल में क्या हार ब्रौर क्या बीत । छक़ें भी सेछ में रोने से दिच किनाते इं सौ इस दुनिया क्छ ह) माना बाय | ग तका बाय तब तक जकः উভা बाय । দ্য বাতি লী रात राण बीत गये तौ रष रमि हे अनेक उच्च पर्दों पा कार्य किया बौर हस बीच उनके टे अवतर मो आये होगे जबकि उन्हें उचित अधिार प्रयोग हारा किसी को असन्तुण्ट काना হ্যা शै पान्तु श व्यनिति के प्रतिमो उनके हदय में काकुतुति एश्तो थी । मा. की परिकिल्यना उन उह, उदय আব अकृजिम स्काव से हो उपयी थी | चे ख कुडह वय्ता थे, माणणा देने सफ् े होते तो उनके अन्त:क़ाणा উ শিক गौ विवा को कफिंकर्यव्य किपड्ठ कर देते से ।




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