समाज दर्शन की रूपरेखा | Samaj-darshan Ki Ruprekha

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Samaj-darshan Ki Ruprekha by अजीत कुमार सिंह - Ajeet Kumar Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिचय চি पृथ्वी के रूप में किया। तत्पदचात्‌ उन्होने आकर्षक और घृणित भर त्तियो मे, स्थायी और परिवतनसीलं मे, एकत्व श्रौर बहुत्व मे, पदाथं भ्रौ. आकृति मे और इसी प्रकार अन्य वस्तुओ मे भ्रस्तर प्रदर्शित किया । जीवन का सामान्य तथ्य भी उन श्रारम्भिक वस्तुओं में से था जिसने उनका ध्यान आकर्षित किया। उन्होने उसका श्रपने चारो तरफ के ससार के अनन्य तत्वो के साथ सम्बन्ध स्थापित करना चाहा । उदाहरणास्वरूप, हेराक्लिटीज ने इसे उतार-चढ़ाव की सामान्य प्रवृत्ति मे देखा । उसे ऐसा लगा कि अखिल प्रकृति मे चारो तरफ यही हलचल चल रही है जैसे--भाप के उठने और वर्षा के बरसने मे, गरमी और सरदी मे, जागने और सोने मे, जीवन और मरण मे विकास और विनाश से, गुण और दोष मे तथा उनन्‍तति और पतन मे । इस प्रकार का चिन्तन प्राचीन यूनानी विद्वानों को विकासवाद के सिद्धान्तो तथा जीवन में उसके प्रयोग के कुछ निकट ला सका। परन्तु बहुत आरम्भिक अ्रवस्था में वे मानव-जीवन की अनियमितताओं से, विशेषतया उसके सामाजिक पहलू मे, प्रभावित होने शुरू हो गए होगे । उन्होने प्राकृ- तिक शक्तियो के सम्बन्ध मे, उनके एक-सा होने के कारण एक काफी सुनि- द्वित अवधारणा निर्चित की भी थी । उन्होंने देखा कि श्रगिनि के जलने का एक निश्चित तरीका है, जैसा यूनान मे वैसा ही फारस मे भी । सारांश मे, यही पौधो के विकास, जानवरो की प्रवृत्ति, नक्षत्रों के चलने तथा अन्य प्राकृतिक हलचलो के सम्बन्ध में कहा जा सकता है । श्रत; समा गया कि यह्‌ प्राकृतिक वस्तु की एक विशेषता है जो अभिन्‍न एवं एक-सी है। भ्रकेला मानव-जीवन ही, विशेषतः श्रपने सामाजिक पहलू मे, स्पष्ट अपवाद के रूप मे दिखलाई पडता है। चयन की स्वतन्त्रता, जो मानव को प्राप्त है, सर्वप्रथम पूर्ण स्वेच्छाचार- सी दिखाई पडती है । इसमें उच्चतर नियमों की पूर्ति के लिए एक विलक्षरा बुद्धि की आवश्यकता है। यहाँ तक कि वर्तमान समय मे भी हम मानव के कार्यों की श्रनियमितता तथा प्राकंतिक घटनाग्रो की नियमितता, ज॑से ग्रह-नक्षत्र आदि, की गति मे भेद प्रदर्शित करने को उद्यत हो जाते है। वे न स्क सकते है, न मार्ग में भटक सकते है, परन्तु हमारी अमर आत्माएँ ऐसा कर सकती है । पाँचवी शताब्दी (ईसा पूर्व) के मध्य यूनान मे जन-शिक्षको के एक समूह ने, जिसे सामान्यतः कुतर्की कहा जाता है, इसं प्रतिस्थापना को प्र¶ृखता दी कि क्या यह प्राकृतिक या स्वाभाविक रै श्रथवा स्वेच्छाचारपूरां एव परम्परागत | ये घूमते रहने वाले प्रचारक थे। ये लोग विभिन्‍न स्थानों के १. इस विषयक एक अच्छा सामान्य विवरण प्रो० बने की पुस्तक भली ग्रोक किल्ा- सफी? में उपलब्ध हो सकता है ।




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