णाणसायर | Naansayar

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Naansayar by कुसुम जैन - Kusum Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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17 / णाणसायर--भक-2 नही । सेवक घट को ले आया। सेठ ने उस पर स्वस्तिक चित्र ,वनाया गौर मागलिक पदार्थों को सजाकर साधु की प्रतीक्षा करने लगा। जैसे ही साधु आया, उसने “नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, भव्रतिष्ठ, अव्रतिष्ठ कहकर अभिवादन किया मौर विधि के साथ भाहार दिया। त्यागी ने भी कायोत्सगे करके पाणिपात्र मे आहार लिया। सेठ की प्रार्थना पर साधु ने सभी को उपदेश दिया कि यह दृश्यमान जगत मैं नही हू अत स्व में लीन हो पुरुषार्थ करना चाहिए -- पुरुष परमात्मा + अथं प्राप्तव्य है । यह कहकर साधू चलां गया । सत सथति से वचित सेठ अत्यन्त खिन्‍न हो गया । सेठ को विषण्ण देखकर कुम्भ ने उसे त्यागियो की महिमा बताकर आश्वस्त किया । सेठ को कुम्भ मे साधुता के दर्शन हुए । इससे स्वर्ण कलश को ईर्ष्या हुई कि इतने मूल्यवान कलशो के रहते हुए मिट्टी के घट का इतना सम्मान | तब मिट्टी के कलश ने उसे ताडते हुए कहा---तुम अपने को सबर्ण समझते हो पर तुम्हारी सगति से तो दुर्गति का मार्ग खूलता हे, मा माटी को मान दो, यह तुम्हारी भी मा है। स्व-पर का भेद ज्ञान ही सदज्ञान है और হল मे रमण करना ही सदज्ञान का फल है। विषयो मे रसिकता और भोगो की दासता ससार-बधन के कारण है। ऋषि भी माटी की शरण लेते है, इसी पर शयन करते हैं। इस प्रसग मे वही पर विद्यमान झारी, चम्मच, घृत, केसर आदि का नोकझोक पूर्ण वार्तालाप बडा ही मतोरजक है। सभी ने मिट्टी घट का उण्हास किया। रात को सोते समय खून का प्यासा एक मच्छर आया, उसने सेठ की प्रदक्षिणा की, कान में मत्र भी जपा, तव भी कृपण ने कृपा न की। यह देखकर पलग में विद्यमान मत्कुण ने कहा--सखे ! चौको नही, ये बडे लोग है, स्वय के लिए ही सग्रह करते है पर हमको एक रक्त की वृद भी दान नही करते । कुछ देर दोनो मे ब्रहुत ही रोचक किन्तु सारगाभत सभ्भाषण हु । सेठ उसे सुनकर प्रसन्ने हुभा भौर अपने को प्रशिक्षित सा अनुभूत करने लगा । परन्तु रातमे नीद न भने से दाहुज्वर हो गया । प्रात' काल वेद्य बुलाये गये । सबने परामर्श करके कहां--दाहज्वर है । उन्होने औषधियों से उपचार किए पर असफल। शस ष' इन वीजाक्षरोसेभी उपचार किया अर्थात्‌ इनको श्वास से भीतर ग्रहण कराकर नासिका से ओकार ध्वनि के रूप मे बाहर वार-वार निकलवाया। अन्त से भू की शरण ली । भू की पुत्री मादी का टोप बनाकर सिर पर रखा, जिससे सेठ को सज्ञा आने लगी। उसके मुख से योगिगम्पा, मूलोद्रमा, ऊध्वतिना पश्यन्ती के स्पमे नाभिकी परिक्रमा करती हुई ओकार एवनि निरक्नस रूप मे उठी, जिसने मध्यमा को जाग्रत कर हूद




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