परिषद पत्रिका | Parishad Patrika

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Parishad Patrika by डॉ. कुमार बिमल -Dr. kumar Bimal

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ. कुमार बिमल -Dr. kumar Bimal

Add Infomation About. Dr. kumar Bimal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अप्रैल, १९८३ ई० |. बरब-संस्कृतति को संस्क्रत-वाछइसय की देल { ११ [२] प्राचीन काल में भारत विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र मे संसार के अन्य देशो से बहुत आगे था] उस समय भारतीय वस्तुओ का प्राच्य (चीन-सहित) तथा पाश्चात्य (यूरोप) देशो मे पर्याप्त जादर था ! इसका प्रमुख कारण यह था कि उस समय तक भारत से रसायनशास्त्र तथा लौह्‌-तकनीक का पर्याप्त विकास हौ चुका था, जिसके फलस्वरूप यहा उक्कृष्ट लौह्‌-शस्तरास्त्नो का उत्पादन होता था, जिनकी उन देशो मे काफी मांग धी । इस प्रकार, ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रो मे भारत की उपलव्धिर्यां अरवब-निवासियोके लिए कालक्रम से प्रेरणा-खोत बन गई थी। गणित एवं ज्यौतिष-विज्ञान विशेष रूप से उनके आकर्षण-केन्द्र थ, कारण इन दोनो केतो भे भारत की अत्यधिक मौलिक देन थी। जैसा कि सर्वेविदित है, वेदिक युग से ही इस देश मे ज्यौतिष-विज्ञान की भघानता रही है और अरब के विद्वानों ने सर्वप्रथम 'सिद्धान्त' ('बह्मसिद्धान्त') नासक ज्यौतिष-प्न्ध का अध्ययन एवं अरबी-भाषा से उसका अनुवाद किया, जिसके फलस्वरूप वहाँ नक्षक्ो के धैज्ञानिक अध्ययन्त की परम्परा प्रारम्भ हुई थी 1 अरबी-भाषा के विद्वानू मुहम्मद इब्न इन्नहीम अल-फजरी (सन्‌ ७९६-८०० ई०) ने उक्त ग्रत्थ का अनुवाद किया था और इसके बाद ही इसलाम के प्रथम ज्योतिबिद्‌ के रूप मे उनकी ख्याति सर्वेत्र फैल गई। भारतीय दाशंनिक विचारधारा मुसलमानी देशों से विभिन्‍त ख्रोतो से पहुँचीं । बरमाक-परिवार के मन्‍्त्ी, जिन्होंने अरब पर बद्धंशती से अधिक समय (सन्‌ ७५५- ८०५ ई०) तक एकच्छत्न शासन किया था, सम्भवत. सबसे बड़े 'भारतीयतावादी” थे, जिनकी भारतीय विद्याओं मे अगाघ अभिरुचि थी। प्रारम्भ मे वह भारतीय बौद्ध थे, किन्तु बाद मे उन्होने इसलाम-धर्म स्वीकार कर लिया था। सम्भवत , इसी भारतीय पृष्ठभूमि ने खालिव॑ बरमाक को अरबदेश मे भारतीय ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन के लिए प्रोत्साहित किया था । किन्तु, यहु मानना गलत होगा कि यरवी विद्रानो की समस्त बौद्धिक अभिरुचि बगदादके शासकोके सरक्षण पर ही भुख्यत आधृत थी। हारून-अल-रसीद ভাহা बस्माको की ह्या कर्‌ दिये जाने के वाद भी भारत-अरब-सांस्क्ृतिक सम्पर्क अक्षुण्ण रहा। कारण, भारतीय ज्ञान-विज्ञान से अरव-विद्वान्‌ू इस प्रकार प्रभावित हो चुके थे कि इसके बाद भी कई शतिथों तक अरब-इतिहासकार, भूगोलवेत्ता, विद्यातू तथा यात्री प्रचुर सख्या मे भारत माकर य्ह के लोगो का जीवन, धर्म, भूगोल, ज्यौत्तिषशास्त्र, गणित्त तथा रीति- रिबाजो का अध्ययन करते भौर इस ज्ञान-भाण्डार को लेकर अपने देश को लौट जाते । धास्तव में, 'अरब और भारत का यह्‌ सास्कृतिक सम्पकं अरब-पुनर्जागरण-जान्दोलन का एक भ्रमुख अंग बन गया, जिसका सुख्य उद्देश्य ससार के विभिन्‍न देशो के ज्ञान-विज्ञान से लाभ उठाना था। किन्तु, एक ओर जहाँ भारतीय ज्ञान-विज्ञान मे अरब के विद्वानों की खचि अजस्र भाव से प्रवाहित थी, बही दूसरी ओर यह्‌ कहना कठिन है कि उसके चिकि्साविज्ञान, ज्यौत्तिष तथा गणितशास्त्र पर भारतीय प्रभाव कर्टातक पड़ा, यंद्धपिं निकोलखन के शब्दो मे यह प्रभाव पर्याप्त मात्ता' में था ।* ३. विक्रमजीत हसरत : दाराशिकोह : लाइफ ऐण्ड बक्से, पु० १७६ |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now