मणिभद्र : पुष्प - 24 | Manibhadra - Pushpa-24

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Manibhadra - Pushpa-24 by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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„= श्रीती्थे कर परमात्मा, केवल ज्ञान प्राप्त कर घमेदेशना के मेघ द्वारा सांसारिक भव्य जीवों के पाप सन्‍्ताप को दूर कर, उनकी कठोर चिन्तभूमि को ऐसी रसप्रद एवं फलप्रद बनाते है, कि जिससे उत्तमें ज्ञानादि सद्गुणों के बीज पल्‍लवित एवं विकसित होते हुए, क्रमशः पूर्ण श्रक्षय स्वरूप पाकर फलरूप परिणुमित हौ जयं । एक बार बरसा हुश्रा पुष्करावतं मेव भूमि को इतना रसाल' और फलद्रूप बना देता है कि “जिससे इक्कीस हजार वर्ष तक श्रन्नोत्पादन हो सकता है। ठीक इसी प्रक्रार पुष्करावत के मेघ समान प्रभु की वचन वुष्टि के अपूर्व प्रभाव से इक्की स-इक्क्रीस हजार वर्ष तक भव्यात्माओं की हृदय रूप धरती मेँ सव प्रकार के पुण्य प्रौर सदगुणों कौ कत्पलताए' पट्लवित, पृण्पित, श्रीर्‌ फलित चनती हुई रहती है । प्रभु की निःसीम करणा का प्रनाव- प्रभ की स्तवना करते हुए किसी कवि ने कहा है ° सकलक्रुशलवल्ली पृष्करावतं मेघो” श्र्थात्‌ सकल पृण्यरूप वेलों को उगाने में प्र पृष्करावते মন समान है । जगत में जो कोई भी जीवात्मा सुकृत- पृण्यकाय करने हेतु प्र रित होता है या उसके हृदय में जो कुछ भी शुभ भाव पैदा होता है । वह सब तीर्थकंर परमात्मा की निःसीम करुणा का ही प्रभाव है । चतुविध संघ रत्नवान--- चतुविध संघ र॒त्त खान है। अरिहंत, सिद्ध, 4 5 श्री अरिहंत परमात्मा का प्रभाव (] प० पु० श्राचार्यदेव श्रीस द विजय कलापूर्ण सूरीश्वर जी मा० सा० आचाये, उपाध्याय और साधु चतुविध संघ में से ही बनते है । संघ की भक्ति में ऐसी अनुपम शक्ति हैं कि इससे तीर्थ कर नामकर्म का भी निर्माण हो सकता है। श्री संभवनाथ भगवान ने अपने गत तीसरे भव मे दुष्काल के समय चतुविव संघ की महान्‌ भक्ति करके तीथकर नामकरमं निकाचित किया था। गेहू में रोटी, पूड़ी, लड्डू, और लपसी बनने की शक्ति रही हुई है, विविध व्यजन जिस प्रकार गेहू' से बनते है, इसी प्रकार अरिहत, आचाय॑, उपाध्याय आदि विविध पदों के अश्रधिष्ठाता संघ में से ही बनते है । प्रभु भक्ति का प्रभाव -- श्री तीर्थ कर परमात्मा द्वारा बताये गये प्रत्येक अनुष्ठान की आराधना आत्मा को भ्ररिहत, सिद्ध, आचाये, उपाध्याय या साधु पद देने में समर्थ होती है। बीस स्थानक पदों में से, किसी भी एक पद कौ भाव पूर्वक की गई आराधना, तीर्यकर नामकर्म भेंट करती है। अरिहत ,परमात्मा की सेवा से ज्ञान बढता है, प्रभु की सेवा करने का ज्ञान, आत्मा के लिए हितकर ओर तारक बनता है ' भक्ति रहित कोरा ज्ञान, भले ही कितना भी मिल जाय, आत्मा में भ्रह कार उत्पन्न कर, पतन का कारण भूतं होता है । पढ़ हुए यानी ज्ञानी भी यदि भक्ति द्वारा )




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