विचार और विश्लेषण | Vichaar Aur Vishleshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी का अपना आलोचनान्शास्त्र ११ व्यक्तित्त खोकर विकास कैसा ? संस्कृत काव्य-शास्त्र का भाण्डार अत्यन्त विभूति-सम्पन्त है, इसमें कौन संदेह कर सकता है--भरत से लेकर जगन्नाथ तक प्रसरित यह समृद्धि हमारी अम्‌ल्य थाती है : उसका उचित अध्ययन अभी नहीं हुआ है । उधर प्लैटो मे लेकर क्रोचे तक विस्तृत चिता-धारा भी हमें विदेशी शोषण की क्षतिपूरति में मिली है, उसका भी हमारा ज्ञान बड़ा कच्चा है। इन अभावों की पूर्ति के लिए हिन्दी के मेधावी श्रानोचकों के सामरदायिक्र प्रयत्न की अपेक्षा है : और उनके लिए यह्‌ काये फिसी प्रकार दुष्कर नहीं है, क्योकि यदि आप आत्म-इलाघा न मानें तो मैं एक बार फिर निवेदन कर दू कि हिन्दी का गअलोचना-साहित्य आज कदाचित्‌ उसका सबसे पुप्ट अंग है । इस प्रकार हिन्दी के स्वतन्त्र आलोचना-शास्त्र का सम्यक्‌ विकास किया जा सकेगा जिसका मूल आधार होगा, हिन्दी के माध्यम मे काव्य के चिरन्तन सत्यो का अनुसन्धान, जो भारतीय तथा पादचात्य काव्य-रास्तरों की समृद्ध परस्पराग्रो से पोषण प्राप्त करेगा, परन्तु उनकी व्याख्या या अनुवाद मात्र होकर नहीं रह जायेगा ।




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