तमिलनाडू : लोकसंस्कृति और सहित्य | Tamilanaadu Lokasanskriti Aur Saahity

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Tamilanaadu Lokasanskriti Aur Saahity by एस. एम. एल. लक्ष्मणन चेट्टियार - S. M. L. lakshmanan Chettiar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रदेश और लोग 9 सुप्रसिद्ध भारत नाट्यम का विकास तमिलनाडु में ही हुआ था । शिक्रार कुश्ती घूंसेबाजी और पासों के खल बहुत लोकप्रिय थे । स्त्रियां मकानों की छतों पर मंद के खेल खेलती थीं । स्त्री-पुरुषों के सम्मिलित स्नान और वन-विहार की प्रथाएं भी प्रचलित थीं । बच्चे विभिन्‍न प्रकार के खिलौनों के उपरांत खेल में छोटे-छोटे धनुष-बाण का भी प्रयोग करते थे । यल्लव वश पल्लव वंश के अधिकांश राजा कुशाग्र बुद्धि वाले बहुश्वुत॒ शासक थे । अपने व्यक्तित्व में वे कुशल शासक के उपरांत उच्चचोटि के नाट्यकार संगीतकार वास्तु शिल्पकार धर्मतत्त्वज्ञ और योद्धा के गुणों को संजोये रखते थे जो उन्हें अपने युग का परिपूर्ण मनुष्य बना देते थे । उनका राज्य उत्तर सीमांत से लगाकर कावेरी के तट तक फैला हुआ था जिसमें उन्होंने धर्म साहित्य ओर कला का गौरवास्पद विकास किया । संस्कृत को उन्होंने प्रबल प्रोत्साहन दिया । उस युग के शिलालेखों का आदेशात्मक अंश तो साहित्यिक तमिल में होता है लेकिन राजा की स्तुति करनेवाला अंश निरपवाद रूप से संस्कृत में पाया जाता है । संस्कृत ग्रंथलिपि में लिखी जाती थी जिसका प्रचलन केवल तमिलनाडु में हो रहा है। पल्लव काल में हिंदू धर्म की दोनों शाखाओं--शैव और वैष्णव का सर्वागीण पुनरुत्थान हुआ । उस युग के स्तोत्रक।रों --शैवों के नायनमार और वष्णवों के आलवार संतों की वाणी और क्रियाशी लता ने दक्षिण में बौद्ध और जन प्रभाव को कंठित कर दिया । तीन महान्‌ नायनमार संत संबंदार सुंदरार और अप्पार के तेब्ररम्‌ नामक भक्तिगीतों को और आलवार संतों द्वारा रचित प्रबंधम्‌ नामक स्तोत्रों को संसार के धार्मिक साहित्य में वेशिष्ट्य पूर्ण योगदान मानना होगा। उन्होंने भक्तिकाव्य के रूप में एक नये प्रकार की कविता का ही नहीं बल्कि एक नूतन उपासना-पद्धति का भी प्रचलन किया । श्रुति मधुर पण्णों में रचित गोतों द्वारा गायक को आत्मविभोर कर देनेवाले इन स्तोत्रों ने भारत के भक्ति-साहित्य में .बहुत ऊंचा स्थान अजित किया है । संत माणिकवाचकार के तिरुवचकम्‌ ने ता धामिक पुनर्जागरण को बहुत अधिक गति प्रदान की । इन गीतों ने उस प्राचीन काल से लगाकर आजतक जनसाधारण को प्रेरणा दी है और उनका गायन घरों में चैयक्तिक रूप से और देवालयों में सामूहिक रूप से अब तक चलता आ रहा है।




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