धर्म - देशना | Dharm - Deshna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(.३) . ^“ उपल्तेद्‌ धा विगमेई्‌ वा घुवेह वा । ` ( उत्पाद, व्यय ओर प्रोब्य ) इस त्रिपदी को प्राप्त करके द्वादशांगी की.-रचना- करते हैं | तो भी उ्त में यह खाप सूती होती है कि मित्र २ गणघरों की बनाई हुई द्वादशांगी का अथे पमान ही होता है । यदि चाहे तोः मोटे रूप से द्वादशांगी के अंदर आये हुए शब्दों को स्वयंभ्रमण- समुद्र की उपमा दे सकते हें; परन्तु समुद्र परिमित है ओर - उनका अर्थ अनंत है । इस लिए उपम्ा ठीक ठीक नहीं होती । इसी लिए वे अन्ुपमेय अर्थात्‌ उनको किप्ती की उपमा नदीं दी जा सकती है । कहा ই ক্ষি--- * एगस्स छत्तस्स अणंतो अत्यो ”। ( एक सूत्र के अनंत अथ होते हैं ।) ऐसे संख्या बंध सूत्र हैं।' इंसद्षिए उनके अर्थों को अनंत कहने में कोई वाधा नहीं दिखती। पूर्वोक्त वाक्य के षु एक अल्पबुद्धि महुष्य ने হার करते हुए समयेसुंद्र उपाध्यायनी से कहाः-४ त्ाहिंद ! ठंडी साया में बैठकर खूब गप्प छगाई है »। इसी बात को छेकर छुशाग्रबुद्धि उपाध्यायनी महाराज ने एक. वाक्य के आठ छाख अथै करके बताये थे । वह प्रय निसमे वे अथ. छकटित कथि गये. ह-अव मी विद्यमान ই।




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