शश्रमणोपासक | Shamanopasak
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
गणेश लालवानी - Ganesh Lalvani,
जानकीनारायण श्रीमाली - Janki Narayan Shrimali,
नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat,
शांता भानावत - Shanta Bhanawat,
श्री भूपराज जैन - Shri Bhoopraj Jain,
सुभाष कोठारी - Subhash Kothari
जानकीनारायण श्रीमाली - Janki Narayan Shrimali,
नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat,
शांता भानावत - Shanta Bhanawat,
श्री भूपराज जैन - Shri Bhoopraj Jain,
सुभाष कोठारी - Subhash Kothari
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
318
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
गणेश लालवानी - Ganesh Lalvani
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जानकीनारायण श्रीमाली - Janki Narayan Shrimali
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नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat
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शांता भानावत - Shanta Bhanawat
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श्री भूपराज जैन - Shri Bhoopraj Jain
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सुभाष कोठारी - Subhash Kothari
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)निलिप्तता का मार्ग
% श्राचार्य श्री नानेश
स अ्रवसपिणी काल में अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर के शासन
में उनकी आत्मोद्धारक वाणी पर अधिकाधिक चिन्तन आवश्यक है। उनकी
वाणी का चरम लक्ष्य है--सभी प्रकार के बन्धनों से आत्मा की मूक्ति । यह्
मुक्ति ही आत्मा की समाधि का चरम बिन्दु है, लेकिन आत्मा की समाधि का
आरम्भ मुक्ति मार्ग पर चलने के संकल्प से ही हो जाता है। सूत्र समाधि से
प्रात्मज्ञान का प्रकाश फलता है तो विनय-समाधि ज्ञान के धरातल पर कठिन
प्राचरण की सफल पृष्ठभूमि का निमणि करती है । फिर भ्राचार-समाधि एवं
० आ्ात्मा को मुक्ति मार्ग पर गतिशील और प्रगतिशील बना
|
, _ आत्मसमाधि का यह मार्ग एक प्रकार से निलिप्तता का मार्ग है।
संसारिकता से निरलिप्त बनकर जितनी आत्माभिमुखी वृत्ति का विकास होगा,
उतनी ही अ्रधिक शान्ति मिलेगी और मुक्ति-मार्ग पर गतिशीलता बढ़ेगी ।
निलिप्तता का मूल मंत्र :
सम्यक् आचरण ही निलिप्तता का एवं उसके माध्यम से आात्म-समाधि
क मूलसूत्र है । शुद्ध प्राचार के बिना जीवन शुष्क तथा प्रगतिहीन ही रहता
। शृ भ्राचार एवं व्यवहार की स्थिति सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् श्रद्धा के
` साथ सद्ट वनतो है । ज्ञान एवं क्रिया का भव्य समन्वय वनता है, तव मुक्ति-
¦ दायिनी निक्लिप्तता का मागे प्रशस्त होता है ।
' के लेप दो प्रकार का होता है । यहां लेप से अ्भिप्राय किसी शारीरिक
, “प से नहीं है, बल्कि उस प्रकार के आत्मिक लेप से है, जो श्रात्मा पर चढकर
- अत्मस्वरूप को मलिन बनाता है । यह लेप दो प्रकार का इस रूप में होता है
पहली वार् तो विषय एवं कषाय की कलुषित वृत्तिया जब मन मे उठती है
न দ্য विषैला धुआ मानस को अंधकार से घेर लेता है । एक तो लेप का
करो ल्प होता फिर दूसरा रूप तव प्रकट होता है, जव उन कलुपित वृत्तियों
उत्तेजना में कर्मंबध का लेप आत्मस्वरूप पर चढ़ता है | यह लेप तब तक
नाता ह या घटता है, जब तक सम्यक् आचरण को जीवन में नहीं अपनाया
|
+ के आदर इस प्रकार सासारिक पदार्थो के प्रति जितनी ममता है और उस ममता
है
णम जितनी कलुपित वृत्तियों की उत्तेजना पैदा होती है उन सबके
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