सुख यहां | Sukh Yahan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
562
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धीद्दा १-२ ११
लड़का हूं, हतना सुनना था कि क्षत्रिय पुत्रकों बल व जोश प्राया भौर कट उपर भा गया ।
सो भैया ! भ्रपना स्वरूप सिद्धोंक स्वरछूपके समान सममनेसे झ्रात्ममल बढ़ता है भौर एक
विशेष प्रकारक। भ्रानश्द प्राप्त होता है ।
भ्रापत्ति, विपत्ति, क्लेश, चिन्ता, यह् सब ऐसा सोचनेसे कि मैं वहीं हूं जो भगवान्
हैं तथा जो भगवान् हैं वह मैं हूं, नष्ट हो जाती हैं। सदा सब प्राणियोंसे समताका भाव
रखना चाहिये । जो प्रनुकूल हैं उनपें भी यही प्रतीति करनी चाहिये कि सब सुखी होवे तथा
प्रतिकूल प्राणियोंमें भी समताका भाव रखना चाहिये । प्रतिकूल प्राणियोंमें करुणा भाव पैदा
करके समता रखनी चाहिये क्योकि ये सभी जीव चैतन्यस्वभाव वाले ही हैं। यह प्राणी
संसारमे रहता है किन्तु उसमे संसार नही रहै तो यही जयका साधन दै । यह संसारे बाहर
कसे रहै किन्तु फिर भी संसारम रहते हए भी संसारसे दुर रह पपने भापकी भाठमाका
कल्याण करे । जैसे नाव पानीमे रहती है, चाहे वह समुद्रका पानी हो या नदीका, किन्तु नाव
मे पानी नहीं । नामे पानी भ्रा जानेसे नावका ही भ्रस्क्ित्व समाप्त हो जांता है ।
हम यदि वास्तविक स्थिति देखें तो पायेंगे कि हम लोग प्पने सम्बन्धियोंसे तथा
जिनसे मोह रखते हैं, उनसे ठगे जा रहे हैं तथा भपनी पर्याय इनके वश ही बिगाड़ रहे हैं ।
ग्रत: सवंदा यही विचार करना चाहिए कि मेरा स्वरूप सिद्धोंके समान है यही भालमाका
धर्म है। इसके प्रभावमें ही हम लोग मन्दिर जाना, सामायिक करना भ्रादि पुण्यके कार्य
करते हैं ताकि उपयोग निजमें लग जावे । सदा विचार करना चाहिए कि “अ्रात्या क्लि्टस्तु
संसारे” मैं भ्रममें पड़कर संसारमे अमित हो रहा हूं, इन सबसे हटकर क्यों न मैं धपनी
झात्मामें रमकर सुखी होऊँ। इसे द्वव्यगुण पर्यायमें कहते है । द्रव्यकी भ्रपेक्षा मैं पर सिद्ध
एक समान हुं । सिद्धके गुण भोर मेरे यण समान हैं। यदि धन्तर है तो केवल पर्यायका
है । उनकी पर्याय शद्ध व निर्मल है पौर हमारी मलिनदहै।
भन्तरदृष्टिसे देखो तो सभी जीव शुद्ध ज्ञायकस्वरूप एकरस हैं यही विश्वास भ्रमृत है ।
हमें, मैं प्रमुकका पिता हूं किसीका पति हूं, घनशालो हूं भ्रादि संश्कारोंको शानखूपी जलसे
धोकर नष्ट करना चाहिये । मैं जश्ञानमय हूं->इस विचारके पश्चात् बाकी सब भाया है । मैं तो
प्रनन््तझानन्दका निधान हैँ फिर क्यों थोड़े भ्रानन्दके लिए छटपटाता रहूं, क्यों कहपना कर
संसारमें भटकता रहूं ?
प्रनेक कठिनाइयोसे प्राप्त हुए मानव जीक्नको विषय कपषाथोंमें नष्ट नहीं करना
याहिए । भ्पती ही सीधी सीधी बात न समझ कर श्राणी अम करते हैं कि मैं श्रसमुक शहर
का रहने भाला हूं, भमुक जातिका हूं । इन सब संल्कारोंको कभी न कश्री तो श्रवश्य ज्ञान
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