वैदिक धर्म | Vaidik Dharm

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Vaidik Dharm  by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिव्य जीवन लंदरसे निकककर एक निर्देशक श्लास्म-छानमें भा जाती ই तथा णपने-श्लाफके किन्हों सत्योका दान कर डन्दें अपने काछद्दीन देशद्वीन क्रस्तित्वके काछगत जोर देशगत विस्तारमें सिद्धू करनेका संकल्प करती है। उसको जपनी सत्तामें जो क्छ रै षी लारम-क्ञानका, ऋत्‌-चितुका, ऋतं मरा-माव- नाका रूप घारण करता है झौर यह आत्म-क्षान चुकि भात्म-शक्ति भी हैं इसलिये यह अपने-भाषकों काछ भौर देंशर्मे भब्यर्थ रूपसे चरिताथे क्या सिद्ध करता है । यही, तब, भागवत चेतनाका स्वभाव है जो अपनी चित्‌ झक्तिकी क्रियाके द्वारा अपने-भाषके दुरे समस्त वस्तुभोङी सष्टि करती ओर अस्तित्वके सत्यकी निगूढ़ ज्ञानमय इृच्छा- शक्तिक्रे द्वारा या वस्तुओंको जिसने बनाया है डस ऋत भरा भावनाके द्वारा झपने भात्म-विवतनके जरिये उनके विका- खका नियमन करती है | जो सत्ता हुस प्रकार चिन्मय है उसे ही दम इंश्वर कहते हैं, भौर स्पष्ट ही वह सर्वच्यापी, सर्वेज्ञ और सर्व शक्तिमान है। सर्वेब्यापा हसालिये कि नाम रूप मात्र उसकी चिन्मय सत्ताके नाम शोर रूप हैं जिन्दे ইহা भीर कालरूपी शके भपने विस्तारमें उसकी अपनी गतिशील शक्तिने सष्ट किया है सवज्ञ इसलिये कि समस्त वस्तुए उसकी चिन्मय सत्तं सास्तत्व रखती, उसके द्वारा रूपायित द्वोतीं ओर उसीके भविकारमे रहती हैं; सर्व शक्तिम्रान इसलिये कि यह सर्वाधिकारी चेनना सर्वाधिकार शक्ति भौर से सश्टिकारो इच्छाक्षकक्‍्ति भा है। और यद्द इच्छाशक्ति भोर ज्ञान जैसे कि मारे जान लोर इच्छाशाक्त एक दूसरेसे लड़ने छगते हैं देसे एक दूसरका विरोध नहीं करते; क्‍योंकि थे पृथक्‌ লা ই অভি उसी एक दी सत्ताकी पक गति हैं। न अंदर या बादरसे कोई दूसरी इच्छा, शक्ति या चेतन। इनका विरोध ही कर सकती दै क्योंकि एकसेवाद्वितीयके छिये कोई भी चेतना या शक्ति बाह्य नहीं है, मौर समस्त फ्रियाशक्तियां तथा ज्ञानके क्ांतर रूपाथन दस एकमेवा. द्वितीये अतिरिक्त शौर कुछ मी नहीं है, बल्कि वे एक निर्देशक इच्छाशक्तिकी तथा एक सववे सामंजस्यकारी जानकी छीछा मात्र हैं। स्यश्टिगत भार विभकत वस्तुश्नोंममें रहनेके कारण तथा सम्रभ्नताकों देख नहीं सकनेके कारण हम जिसे इस्छाक्ों भोर भ्क्तियोंके संघषके रूपमें देखते हूँ তত জবি- मानघं भने मेदुर निलय वर्तमान पू्वनिर्दि्ट खामजस्यके ३ (३७३) परस्पर सद्दायक तस््वोंके रूपमें देखता है, क्योंकि वस्तु्भोंकी समग्रता सदा ही उसकी दृष्टिके अतर्गत रहती है। भागवत चेतत़ाका कर्म किसी सी पद या रूपको क्यों न रहण करे पर दसं चतनाका यही स्वमाव सदा रहेंगा। परंतु उसका अस्तित्व अपने-आपमें पूणे कौर परस हो नेके कारण डसके अस्तित्वकी शक्ति भी छपने बिस्तारसें पूर्ण और परम ही है कौर इसलिये वद्द भपने कमके किसी पक पद या किसी एक रूपमें सीमित नहीं,है | हम मानवप्राणी जागतिक रूपसे चेतनाके एक विश्व रूप है भोर कार भार देशके अधीन हैं तथा अपनी बाह्य चेतनामें, ८ मिपको दम कपनी सारी सत्ता जानते हैं, हम एक कालमें एक ही वस्तु, एक ही रूप, सत्ताका एक ही पद, भनुभवोंका एक दी समूद दोसकते हैं, और वह एक वस्तु ही दमारे लिये हमारे लपने क्षापका सत्य है, केवल (जिसे ही दम स्वीकार करते हैं, बाकीका सभी कुछ या तो हमारे लिये सत्य नहीं है या हमारी दृष्टिके ओझछ द्ोकर भृतकालसें लुप्त हो जानेके कारण हमारे किये क्रब सत्य नहीं रहद्दा है या भविष्यके गर्भमें होने झोर हमारे दृष्टि क्षेत्रके दर नहीं शानेके कारण हमारे लिये मभीतक सत्य नहीं हुआ दै] परंतु भागवत चेतना हृतनी व्यक्टिगत, इतनी सीमित नहीं है, व एक कालमें बहुतरीं वसस्‍्तुए वन सकता है भौर सदा लिये भी एकसे अधिक स्थायी पदोको ग्रहण कर कती टे । स्वय क्षतिमानस तत्वसें ही हम यद्द पाते हैं कि उसकी जगत्‌- निर्मात्नी चेतनाके ऐसे तीन साधारण पद हैं। पहला पद वस्तुणोंके अविच्छेद्य एकंत्वकों स्थापना करता है, दूसरा उस एकत्वमें हृतनासा परिवर्तन करता है जिससे एकमें बहुके भार बहुसें एकके प्राकटथको सहारा मिले, तीसरा उसमें इतना भौर परिवतंन भी करता है जिससे कि बहुमुखी व्यक्तिस्वके विकाप्तकों प्रश्रय मिले | यद्द बहुमुखी ब्यक्ति स्व ही भक्ठानके कर्मके द्वारा चेतनाके निम्नतर स्तरमें हमार अंदर एक पएथक्‌ जद्दकारके अमका रूप घारण करता है। वस्तुकोॉके णाविच्छेद्य एकत्वकी जिसने स्थापना की है अतिमानसके उस प्रथम पदका स्वभाव क्या है यह हमने जान' लिया है । यह विश्वुद्ध एकावमयी चतना नहीं है, क्यों कि वद्द तो सचिदानंदकी भपते जापके भदर काछट्दीन ओर देशद्वीन एकाम्रता है, जिसमें चित्‌-शक्ततिका कोई भात्म-




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