स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास की शिल्पविधि का विकास | Swatantrayottar Hindi Upanyas Ki Shilpvidhi Ka Vikas
श्रेणी : साहित्य / Literature
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
299
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ॐ [17]
इसीलिए कालान्तर में अंग्रेजी शिक्षा से लोगों का मोहभंग हुआ। तभी तो एक तरफ जहाँ हिन्दू पुनरुत्थान आन्दोलन
चला, वहीं दूसरी तरफ नवजागरण का स्वर भी सुनाई पड़ने लगा। प्रेस के आविष्कार के कारण सांस्कृतिक , सामाजिक
राजनीतिक, धार्मिक विचारों के प्रचार-प्रसार को न केवल एक माध्यम मिला, वरन् समाचार पत्रों के माध्यम से विचार-
विनिमय भी होने लगा। ये पतिकाय एक ओर जनतात्निक भावनाओं का पोषण कर रही थीं, तो दूसरी ओर सामाजिक रूढियों
पर आधात करते हुए राष्ट्र निर्माण मे योग दे रहा थीं ब्रह्मसमाज प्रार्थना समाज, आर्य समाज जैसी संस्थाएं इसी समय पुराने
धर्म को नये समाज के अनुरूप दालने का प्रयास कर रही थी। ब्रह्मसमाज ने राजाराम मोहन राय के नेतृत्व मे अनेकों
सामाजिक कुरीतियों परप्रहार किया, जाति प्रथा को उन्होंने अमानवीय और राष्ट्रीयता विरोधी कहा। सती प्रथा के खिलाफ
जहाँ आन्दोलन चलाया, वहीं विधवा विवाह, स्त्री पुरुष के समान अधिकार का भी समर्थन किया। रानाडे ने “प्रार्थना समाज'
के माध्यम से मनुष्य की समानता पर जोर दिया। वे जाति-प्रथा के विरूद्ध और अन्तर्जातीय विवाह के पक्षधर थे। वे भारतीय
संस्कृति को नवीन वैज्ञानिक विचार-प्रणाली के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहे थे। विवेकानंद ने भी रामकृष्ण मिशन के
माध्यम से समाज को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। उन्होंने लिखा है--
“दुनिया के सभी दूसरे राष्ट्रों से हमारा अलगाव ही हमारे पतन का कारण है और शेष दुनिया की धारा
में समा जाना ही इसका एक मात्र समाधान है। गति जीवन का चिन्ह है।'' |
विवेकानन्द ने जाति-प्रथा, कर्मकांड, पूजा-पाठ और अंधविश्वास पर आधारित हिन्दू धर्म की कड़ी आलोचना की | उनके
शब्द हैं--
“हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर में न बंद हो जाए। हम अर्थात् हममें से अधिकांश
न वेदान्ती हैं, न पौराणिक और न ही तांत्रिक | हम केवल 'हमें मत छुओ' के समर्थक हैं | हमारा ईश्वर
भोजन के बर्तन में है और हमारा धर्म यह है कि ' हम पवित्न हैं, हमें छूना मत।' 2
आध्यात्मिक स्तर पर उन्होंने मनुष्य-मनुष्य की समता, एकता, बंधुत्व और स्वतंत्रता की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया।
उन्होंने कहा--
“^ मेरा ईश्वर दुःखी मानव है, मेरा ईश्वर पीड़ित मानव है, मेरा ईश्वर हर जाति का निर्धन मनुष्य है।'' 3
कहना न होगा कि पश्चिम की भौतिकता से चमत्कृत देशवासियों को पहली बार यह अहसास हुआ कि हमारी अपनी परम्परा
में भी कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जिन्हें दुनियाँ के सामने गौरवपूर्ण ढंग से रखा जा सकता है । स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज
के लिए वेदों को आधार माना। बे वेदो को शाश्वत ओर अपौरुषेय मानतेथे। इन्होंने सामाजिक और नैतिक मूल्यों को देखते
हुए एक आचार-सहिंता बनाई । इसमें जाति-भेद, मनुष्य-मनुष्य या स्त्री पुरुष में असमानता के लिए कोई स्थान नहीं था।
वैदिक धर्म के व्याख्याता होने के बावजूद ये पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक थे। अपने हिन्दूवादी दृष्टिकोण के बावजूद आर्य समाज
1, आधुनिक भारत --डॉ० बिपिन चन्द्र, पृष्ठ 153
2. बही, पृष्ठ, 153
3. आधुनिक भारत --डॉ० बिपिन चन्द्र, पृष्ठ 154
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