स्नेही मंडल के कवि | Sanehi Mandal Ke Kavi

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Sanehi Mandal Ke Kavi by डॉ श्यामसुंदर सिंह - Dr Shyamsundar Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्य-मण्डल की परिकल्पना और उसका विकास / ११ अवश्य प्राप्त होती है, परन्तु वे मण्डलीय काव्य सुजन की प्रवृत्ति की अवधारणा से भिन्न दिखाई पड़ते हैं । आधुनिक हिन्दी काव्य के पूर्व समूह काव्य रचना की प्रव॒ृत्ति- सामान्यतः: आधुनिक हिन्दी काव्य का प्रारम्भ भारतेन्दु-युग से स्वीकार किया जाता है। स्वयं भारतेनदु ने अपने काव्य-मण्डल का तिर्माण कर आधुनिक हिन्दी काव्य में समूह काव्य सुजण की परम्परा का नवोन्मेष प्रस्तुत किया । परन्तु सम्पूर्ण हित्दी काव्य के इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाय, तो यह सहजत: अनुमानित होता है कि समूह काव्य सृजन की परम्परा मातरे भारतेन्दुकेद्राराही नहीं प्रवर्तित हुई, प्रत्युत इसकी प्रारम्भिके कड़ी आदि-काल के काव्य घारा में प्राप्त होती है। काव्य-मण्डल के निर्माण हेतु जिन पक्षों का पहले विवेचन किया गया है, उनमें कवियों के राजवरबारी रूप को ग्रहण किया गया है। आदि-काल के प्रारम्भिक चरण में सम्राट हषेवधेन की मृत्यु के पश्चात्‌ यवनो का आक्रमण उत्तरी भारत में प्रबल रूप में प्रारम्भ हुआ । परिणामस्वरूप राजपूत राजा इस्लामी शक्ति के सम्मुख निरन्तर युद्ध रत होने पर युद्धाग्नि में जलकर नष्द होते लगे। इस कारण इस्लामी सत्ता भारत में क्रमश: उदय होने लगी। फलतः इस काल के हिन्दी काब्य मे आक्रमणों एवं बृद्धो के प्रभाक की मनःस्थितियों के प्रतिफलन से यृद्ध- परक एवं भारतीय राजाओं के उत्साहबद्धंक दीर काष्यों का वणेन दिखाई पड़ता है । इन राजनैतिक परिस्थितियों का प्रभाव यह पड़ा कि आदि-काल में कवियाँ के दो वर्ग बने । एक वर्ग का कवि राजाओं के साहस एवं वीरत्व भाव को जागुत करते के लिए बीर गाथाओं के सुजत में तत्पर हुआ और दूसरे वं क! कवि इस राष्ट्रव्यापी विनाश लीला एवं नरसंहार को देखकर पारलौकिक तत्वों पर चिन्तन हेतु व्यग्र हुआ। फलत: हृठयोग आदि से लेकर अन्य आध्यात्मिक विचारों के संवाहक सिंद्धों, जेनों और नाथों के काव्य सामने आये, जिनके द्वारा हिन्दी काव्य में सर्वप्रथम आध्यात्मिक साधना पद्धतियों, सामाजिक आडम्बरों के विरोध, उपदेशात्मक विचारों और हृठयोग साधना पद्धतियों को अभिव्यक्ति मिली । सम्पूर्ण आदि काल में तीन प्रकार की मण्डलीय काष्य चेतना वृष्टिगत होती है । इनं काव्य मण्डलो मे साम्प्र- दाधभिक सिद्धान्त ही वह केन्द्रस्थ तत्त्व हैं, जिनके प्रभाव से मण्डलीय काव्य सुजन की परम्परा का पहलवन होता है और अनेक कवि उन सिद्धान्तों को काव्यादर्श मानकर उस परम्परा पर समूह काब्य का सुजन करते हैं। ये तीनों काव्य मण्डलों के पृष्ठाघार हैं सिद्धन्मत जैन-मत লীহ লাখ-মন 1




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