संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रतिपादित रस दोष | Sanskrit Kavyasastra Me Pratipadit Ras Dosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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-6- मे देवगुरू वृहस्पति को कवियो का कवि अथवा कवियो का नेता कहा गया है अथर्ववेद मे कवि को ब्रहम कं समकक्ष बताकर उसकी काव्य-सृष्टि को अजर-अमर भी बताया गया है ऋग्वेद मे काव्य के कारण कवि को रसस्वरूप (आनन्दस्वरूप) बताकर काव्य, कवि व रस का जो समीकरण प्रस्तुत किया गया है उसे परवर्ती काव्य ओर रस-सिद्धान्त कं लिए एक प्रामाणिक आधार कहा जा सकता है। ऋग्वेद मे शगार आदि रसो के स्थायी भरो का भी यत्र-तत्र उल्लेखं मिलता है“ इसके अतिरिक्त उषः-सूक्त मे शृगार रस की मण्डूक-सूक्त मे हास्यरस की. अक्षसूत्र मे करूण रस की. रूद्र-सुक्त. इन्द्र-सूक्त, पुरूष-सूक्त आदि मे अद्भुत रस की स्थिति स्पष्टत देखी जा सकती है (* ऋग्वेद मे अलकार के लिए 'अरकृत' ओर *अरकृति शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। ऋग्वेद मे एसे अनेक मन्त्र हैँ जिनमे एकाधिक अलकार एक साथ देखे जा सकते हँ | उदाहरणार्थ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया” मन्त्र मे पक्षिदय विषयी के दवारा जीवात्मा ओर परमात्मा रूप विषय का निगरण होने से रूपकातिशयोक्ति अलकार है । तो दोनो पक्षो मे से एक (आत्मा) के भोक्तृत्व रूप गुणाधिक्य का वर्णन होने से व्यतिरेक अलकार শী ই | इसके अतिरिक्त पक्षिद्दय रूप अप्रस्तुत के वर्णन से जीवात्मा तथा परमात्मा रूप प्रस्तुत का बोध होने से अप्रस्तुत प्रशसा अलकार भी हो सकता है | इसी प्रकार अनुप्रास यमक, श्लेष, उपमा. अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा विरोधाभास आदि अलकारो के व्यावहारिक प्रयोग भी ऋग्वेद मे मिलते ह ( ऋग्वेद मे धारा. मार्ग, १ गणानां त्वा गणपति हवामहे कवि कवीनायुपश्रवस्तमम्‌। जेष्ठराजे बहमण ब्रह्मणस्पत आ न॒ *ঞ্থপ্পাতোলি' অ/./%11 ऋग्वेद, २८२३.१। २. पश्य देवश्य काव्य न ममार न जीर्यति। अथर्ववेद, १०८.८३२॥। 3 धनञ्जय पवते कृत्व्यो रसो विप्र: कवि काव्येन । - ऋग्वेद, ६,८८४८५। ४ द्रष्टव्य ० १,१००.८७ मे करूण शब्द का उल्लेख १०,८३.,८१. १०,/६१,/ १ इत्यादि मे रद्र शब्द का उल्लेख १,८३०,९५. १,८८१.२ आदि मे शौयपित (उत्साहयुक्त) अर्थ मे कीर शब्द का उल्लेख. १८१००८१७ मे भयानक शब्द का प्रयोय १,८१८.८६. १,८६४.१२ इत्यादि मे अदृभुत रस का सकत । ৫ द्रष्टव्य ऋ०८ १०.१२४ उक. सूक्त. ७,८१०३ (भण्डक-सूक्त) १०.८३४ (अस-यूक्त) २८३३ (रुद्र-सूक्त) २८१२ (इन््र- सूक्त) १०.१२६ पष्टि-सूक्त अथवा नासदीय सूक्त) १०.८६० (परुक- युक्त) इत्यादि। ६ वायका याहि दशते सोमा अरकृताः। ऋ १,२.१। का तो अस्त्यरकृति युक्तै । ऋ० ७,८२६.८३। ७ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं पखिस्वजाते। तयोरन्य पिप्पल स्वाद्वत्तत्घ्६८य:८८5८//७०'चाकशीति । | -ऋ० १,६४.२० । ८ सो चिन्यु न मराति नो क्यं मरामरे इत्यादि (अनुप्रास) -ऋ० १,८१६.१० । कंकतो न ककतो' इत्यादि (यमक) १,८१६.१। स्क्युच्रि शृणोतु न “ इत्यादि (श्लेष) ऋ” ६,८१५८५।




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