दस्सापूजाधिकार - विचार | Dassapoojadhikar Vichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) किसी ने कोई विजातीय विवाह अथवा धरेजा करावा करलिया हो तब उसकी संतान दस्सा कटी जाती है। शाखो में दस्से का वाचक ““जातिसंकरः शब्द अनेक स्थलों पर पाया जाता है ओर इस प्रकार के जातिसंकर, जातिपतित अकुलीन अर्थात्‌ दस्सों के पूजन का निषेध अनेक जैन ग्रन्थों में हे जिन में से कुछ यहां भी उधृत किये जात है । पहला प्रमाण एजासार ग्रन्ध कलन जात्या संशुद्धो पित्र बन्ध्वा दिभिशुचिः। गुरूपदिष्ट मंत्राल्यः प्रणि बाधादि दुरगः ॥१८॥ अथोत्‌--जिसका जातिकुल शुद्ध हो. (दस्सा या जातिसंकर न हो ) मित्र बन्धु वान्‍न्धव आदि से भी शुचि अथोत्‌ शुद्ध हो जाति बहिष्कृत पद्चायत से दण्डित न हा. तथा गुरू के द्वारा पूजा विधि का सीखा हुआ हा और प्राशियों का बाधा पहुंचाने वाला हिन्सक न हा, वहीं पूजक हा सकता है। इस प्रकार उपराक्त प्रमाण से दस्सां अर्थात्‌ जाति संकरं के पूजा का निपेष स्पष्ट सिद्ध हाता है । शोक में आये हुए “कुलेन जात्यादि संशुद्धा शुचिबन्धु सुहजने:” पद पर निष्पक्षता से विचार कीजिये। दूसरा प्रमाण धर्म संग्रह श्रावकाचार जात्याकटेन पूतात्मा शुचिवन्धु सुदञ्ननेः । गुरूपदिष्ट॒मंत्रण युक्तः स्यादेष पूजकः ॥१४३॥ इसका भी अथ बिलकुल पूब॑त्‌ ही हे शोक में आये हुए “जात्याकुलेन पूतात्मा शुचिबन्धु सुहज्जने!” पद से जाति पतित




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