किरातार्जुनीयम् | Kiratarjunniyam

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Kiratarjunniyam by शोभित मिश्रेण - Shobhit Mishren

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कमासार १३ तरहों से आहत होकर उनके केशपाश दिखर मचे, मारय विदित हो स+ स्वनादि में लिप्त कुहूमादि के राग घुरू गये। कमछिनी में लीन किसी वायिका को आखों में अमर युक्त कमरों का और केशपाश्ोों में अमरों का अम होने ख्गा। जरु मेँ विहार करती हुई उन युवतियों के अक्षत धुरू गये, भा्खे कारू लार हो गयीं । भधर पव भी आछता के राग से रहित हो गये । उन ख्रो जनों के हवथ से ताड़ित होकर मृदड् सइश गम्भीर शब्द्‌ करते हृष पानी का, नायिकां के बड़े २ स्तनो के सम्पकं जभ्य आधात से ताललथ युक्त होकर नृत्यसा द्ोने गा | ऊरु-स्थल के कपड़े में छोटी छोटी मछलियों के धुस- कर फरफराने से त्रास के मारे आँखें चन्चल होने कूगी ओर बाहुरुतायें काँपने ऊूगीं । मीन के अभिभव जन्य घबराहट के बहाने कौश नायिका प्रिय को ही लिपट गई, कोई मानिनी इँसी मखौल में प्रिय द्वारा जरू से ताड़ित होकर रूट्री हुई सी होने पर भी नायक से सनायी जाने पर खुश हो गई । कोई कामुकी तो मदल से विह होकर दिछगी से प्रिय के ऊपर पानी यिडकने के लिये उद्यत होती हुई हाथ को प्रिय द्वारा पकड़ लेने पर नौवीवन्धन के खुल जाने पर भी करघनी से कपड़ा को धकर सम्हल गई, इस तरह बे गन्धरवांङ्गनार्ये चकवा-चकवी को विद्ुडाकर और कमल बन का शोभा को नष्ट कर तारे गणो से चमकत रात कौ तरह सुशोभित्र हुई। और गग्मा का जल मो उनके अन्नों में शिप्त चन्दन रस के सम्पर्क से ज्ुद्ठित भूषण मणि की प्रमा से देदीप्यमान होते हए तरङ्ग से युक्त होकर लोगों का अत्यन्त नयनानन्दजनक हुआ । नवम सगं सायंङारु आदि का वर्णन अक ससे पहले महाकवि भारमि उद्प्रेक्षा द्वारा सूर्यास्त का वर्णन करते हैं--जल- केलि-कीड़ा से निवृत्त उन सुराक्षनाओं के मन को रमण करने की हच्छा से कलुषित सा समझ कर सूर्य भगवान्‌ अस्त होने के लिये उद्यत हुए । उस समय सूर्य अपनी किरणों को डीला कर पश्चिम दिशा का आश्रयण करके कमल-मधु के पान से लाल वर्ण सा अन्ववांला होकर शोभने लगा। चक्रवाक पक्षी के हृदय में विरहसन्ताप प्रकट होने लगा । पश्चिमदिशञा में अपने आअयभूत सूर्य के व्यसन से दुःखी सा होकर किरणों का समूह मलिन सा दो गया। चिड़ियाँ पेड़ों पर जाकर शोरशुरू मचाने छूगीं। शाम का समय निकट आ सया सन्ध्याकालीन लालिमा से पश्चिमदिशा लाल सी हो गईं । क्रमशः एकाएक सन्ध्याकारू भी बीत चरा । अन्धकारो मे बन उपवन नदी पव॑त और सब दिश्षाये व्याप्त हो; गईं। मिलन की श््छा रहने से चक्रवाकदम्पति का भिरह जन्य सन्ताप बहुत बडा सा दीखने छगा 1 चक्रवाक के वरिरह-दश्चेन से व्यथित सा होकर कमखिनी का सुख मौ मलिन सा हो गया । दूसरी जर केतकी पुष्य के किशरक की तरह स्वच्छ अन्द्र-चन्द्रिकाये दिमनन्तो को व्याप्त




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