नियमसार प्रवचन भाग 3 | Niyamsaar Pravachan Bhag 3

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Book Image : नियमसार प्रवचन भाग 3  - Niyamsaar Pravachan Bhag 3

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मनोहर जी वर्णी - Manohar Ji Varni

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श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाधा ३८ ` ११ ठरते ‰ प्रर वे निकन्ञ गदे हैं। निकलनेका नामही आता कहलाता हैं | जैसे सूर्यका आना; रुका उदय द्ोना--इसका अथे सयका निकलना 2 । निकलनेको हयी श्राना दहा जाण्गा | कहीं एक सेव ण्डको भी तो सूर्य खड़ा हो जाए, कहीं खड़ा नहीं होता है | यों ही रागाढिक भाव भी निकलते दैं--ये निकलकर कहीं पर कुछ समय वेठ जाये रह जाये--ऐसा इनका स्वरूप ही नहीं है । फिर परिणभन किसका नाम है ? फिर तो कोई घ्र भाव वन जाएगा ! परिणमन तों कमी भी दुसरे समय न्ह टिकता । निकलनेका नाम परिणमन है ओर जो हमें बाहरसे दिखता है कि ये अनेक परिणमन टिके हुए हैं। जेंसा फल था; वेसा ही आज है, सो ऐसी बांत नहीं है । कोई भी एक परिएमन दूसरे समयमें नहीं रहता किन्तु कोरे परिणमन मोरे रूपसे सदशी सच्श हो जाये तो उसमे यह स्याल जम जाता है कि यह तो जो कल्न था, वद्दी आज है । यह सब कुछ बदला ही कहा है ? परिणभन तो चलता रहता है ओर वस्तु वहीं बनी रहती है । ये सब तो औदयिक भाव प्रकट मलिन परिणाम हैं, ये आत्मस्वरूप नहीं 1 ' पारिणामिक भाव-- अब रहा पचस भाव-पारिणासिक भाव । জী जीवके पा रिणामिक भाव त्तीन बताए गए हैं--जीवत्व) भव्यस्व और अभ- व्यत्वथ | उनमें से भव्यत्व और अभव्यत्व अशुद्ध पारिणासिक भाव हैं अधथाोत्‌ कर्मकि उदय उपशम; क्षाय्क व क्षायोपशससे नहीं होते हैं | इस कारण भव्यत्थ व असव्यत्व पारिएण सिः हे, पिर सी सनस यह दृष्टि बची है कि जी रत्नत्रयरूप दोनेकी योग्यला रखे, उसे भव्य कद्देते है और जो र॑त्नत्रयरूप होनेकी योग्यता न रखे उसे अमव्य कहते है। ऐसी भवित्- व्यता पर) सम्भ्ाघेता पर ये भाव आधारित हैं। इसलिए ये पूर्ण निरपेक्ष नहीं हैं, इन्हें अंशुद्ध पारिणामिके भाव फहते हैं । जीवत्व भाव दो प्रकारका है--दंस प्राणों करिके जीना ओर चेतन्वस्वभाव करफे जीना । दस्मे दस प्राणौकरिजीनारूप' जीवत्व भाय शद्ध भाव है) वर्तमाने दस प्राणो जी रहा है--ऐसी घात अशुद्धताका कथन है । भाषीकालमे जीवेगा--यद्‌ भी अशुद्धतोका कथन है ओर जब जीव शब्दका अर्थ सिद्धोंसे सिद्ध बरने जाते है तो वहा अथ लगाना पडता है कि जो दस प्राणों करके जिया था; उसे जीर्च कहते हैं । लो मर मिटे; सिद्ध है, भगवान्‌ है ओर छब भी थापा जी रहा है अथवा ये दस ग्राणोंसे जीते थे, इसलिए इंसका नाम जी० ई | ऐसे जीवत्घका आशय अशुद्ध आशेय है, निरपेक्ष आशय नहीं है। वे बल 'चेतन्य स्पेरंसकर बृत्ति होता यह ही शुद्ध पारिणामिक भाव है ।




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