परमात्मप्रकाश प्रवचन भाग 4 | Paramatmaprakash Pravachan Bhag 4
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
140
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दो दा ६३ | £
संयमं भो नन्दजनक है
, शील स्वभाव यह भी सुखका रस्च्ट्प है । कोई पाथं दो, बहु श्रपने
आपमें ही रद्दता है। तो इसका ऋर्थ है कि वह अपने शीलमें रहता है, अपने
स्वभावमें रहता है। शील भी एक आत्मा ही है। जो छुछ भी उत्कर्षका
तस्व है बह सबमे होता है। आप है, आत्मा छै। शाश्वत् मोक्षका मार्ग भी
यही आत्मा है। यह आत्मा अपने उपयोगको चला रहा है। डपयोगका
ड्राइवर है। हम किस ओर किसको घछुमा दें तो दुख हो ओर किस ओर
किसको घुसा दे तो आनन्द हो । इतना ही अन्तर है । यदि इसे वाह्य दिशा
मे,लगा४दिया तों ठुख होगा ओर यदि अन्तर डिशासें लगा व्या तो
आनन्द होगा । यह ही आत्मा अपने आपको जानता हुआ शाश्वत मोक्ष
पदको पा लेता है । सयम दो तरहके हें- एक शअ्रपत्ती इन्द्रियोको वशमे रखता
आर दूसरे ग्राणियोंके प्राणोकी हिंसा न करना ! जो म्नुप्य इन्द्रियोॉंको वश
मे- रख सकता है वह आशियोकी हिंसाकों भी छोड सकता है। बह अपनी
इन्द्रियोंकों बशमे रख सकता है । अपने शुद्ध आत्मामें ही अपने को स्थिर
करना इसका नाम सयम है | यह आत्मा सयमस्वरूप है। यह आत्मा स्वयं
शील है । प्रत्येक मनुष्य अपने को कुछ न कुछ रूप मान रहा हैं। सभी जो
हम आपव है, कोई जेसा परिणमन पाता है उस रूप मान लेता ই। में
सेठ ह, मँ युनीम ह्” मँ पडत ह, मँ वावृ हू, एेसी पोजीजशनका हूः इतने
परिवार बाला ट--ये सव अभिप्राय वहिरात्मत्यके ई 1 अपने शत्मस्वरूपसे
बाहर के पदार्थों से यदि दृष्टि दी है कि में मनुष्य हू, में पुरुष हू, में स्त्री हू,
तो यह बहिरित्मत्त्व है । मे एक शुद्ध ज्ञानस्वभावी हू-- इस प्रकार ज्ञानस्वभाव
मात्र जो अपने आपका अनुभव करता है वह पुरुष अन्तरात्मा दै । सम्य-
प्यष्टि है तो वही शील है। जो अपने आत्सतत्त्वका अनुभवन कर रहा है ।
देखिए लोकिक कलायें, देशकों सभालनेकी कलायें; हुकूमत करनेकी
कलाये, ये सब कलाएँ होती हैं । पर इन सबसे उत्कृष्ट कला एक ज्ञान की है !
इसमे तीन लोक तीन कालके सस॒स्न पदाथं एक साथ प्रतिचिम्वित हो जाते
। उस कलाके सामने ये सारी लॉकिक कलाएँ कुछ भी सामर्थ्य नहीं रखती
श्रोर इन कलावॉमें फसे रहे, उनमे द्वी बुद्धि बनाए रहे तो उस ज्ञानी
कलासे हाथ घोना पड़ता है । ओर इन कलावोंसे अपना स्वरूप न जामकर
इनसे भी धीरेसे खिसककर अन्तरड्में अपने आपमे रम सकता है। व्ह
केवल जानकी कलाको प्राप्त कर लेता है। में स्वय ही शील हू। कास; क्रोध
मान, साया; लोभ) मोह ये ६ मेरे वैरी हैं। मेरा वेरी इस जगतसें न्यः
कर नहीं । मेरा वेरीन कोई पुरुष है ओर न कोई पदार्थ है। मेरेर
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