सूयगड़ो - 2 | Suyagado-2

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आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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युवाचार्य महाप्रज्ञ - Yuvacharya Mahapragya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१५ ] सुयगडो १ में आचायंश्री की लघुकाय भुमिका है | उसमे प्रथम तथा ट्विंतीय श्रुतस्कध के विपय मे सक्षिप्त ऊहापोह ३ । सस्कृत छाया सस्छृत छाया को हमने वस्तुत छाया रखने का ही प्रयत्न किया है । टीकाकार प्राकृत शब्द की व्याख्या करते ह मथवा उसका सस्कृत पर्यायान्तर देते हँ । छाया मे वैसा नही हो सकता । हिन्दी अनुबाद ओर टिप्पण प्रस्तुत आगम का हिन्दी अनुवाद मूलस्परशी है । इसमे केवल शब्दानुवाद कोसी विरसता भीर जटिलता नही है तथा भावानु- वाद जसा विस्तार भी नही है। श्लोको का आशय जितने शन्दो मे प्रतिविम्बितं हो सके उतने ही शब्दो की योजना करने का प्रयत किया गया है । मूल शब्दो की सुरक्षा के लिए कही-कही उनका प्रचलित्त अर्थं कोष्ठको मे दिया गया है । शलोक तथा श्लोकगत णब्दो की स्पष्टता रिप्पणो मे की गई है। इसका अनुवाद वि० स० २०२६ वेगलोर चातुर्मास मे प्रारभ किया था! यात्रामो तथा अन्यान्य कार्यो की व्यस्तताके कारण इसकी सपूति मे अधिक समय लग गया । अवरोधो की लम्बी यात्रा के वाद प्रस्तुत ग्रन्थ तैयार होकर अब जनता तक पहुच रहा है । अनुवाद और टिप्पण-लेखन मे मुनि दुलहराजजी ने तत्परता से योग दिया है । इसका पहला परिशिष्ट मुनि धनजयजी ने, दूसरा मुनि प्रशान्तकुमारजी ने तथा शेप दो परिशिष्ट मुनि हीरालालजी ने तैयार किए हैं। साध्वी जिनप्रभाजी ने पाडुलिपि के निरीक्षण मे समय लगाया है। 'अगसुत्ताणि' भाग १ मे प्रस्तुत सूत्र का सपादित पाठ प्रकाशित है, इसलिए इस सस्करण मे पाठान्तर नही दिए गए हैं । पाठान्तरो तथा तत्सम्बन्धी अन्य सुचनामो के लिए “अगसुत्ताणि' भाग १ द्रण्टव्य है । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ मे अनेक साधुभो की पवित्र अगुलियो कायोगहै। भाचायंश्री के वरदहस्त की छायाम वंठ्कर कायं करने वाले हम सव सभागी है, फिर भी मैं उत सब साधु-साध्वियो के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हू जिनका इस काय में योग है और आशा करता हू कि वे इस महान्‌ कार्य के अग्रिम चरण मे और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे । आचार्यंश्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत हैँ । हमे इस कायं मे उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग दोनो प्राप्त हैं, इसलिए हमारा कार्य- पथ बहुत ऋजु हुआ है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं कार्य की ग्रुरुता को बढा नही पाऊगा । उनका आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य-पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशसा है। १६ नवंबर, १६०६ -ग्रुवाचार्य महाप्रज्ञ लाडनू




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