जैन तत्त्व दिग्दर्शन | Jain Tattva Digdarshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
46
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १७)
२ चरत [सल] वत; भिय हितकारक वाक्य फो कहते
है; न फि जिससे किंसी जीवपर आधात पर्हैचे, या कटु हो ।
३ अस्तेय तत वह है, जिसमें किसी प्रकार की चोरी
न हो; क्योंकि मनुष्यों के बाह्य प्राण धनही हैं उसके हरण
करने से मनुष्य के प्राणही हत होते हैं ।
४ ब्रह्मचयेत्रत-देव, मनुष्य ओर तियेश्व से उत्पन्न होन-
वाले १८ प्रकार के कामो से मन), वचन तथा काय से
निदत्त होना ओर करनेवाले को सहायता नहीं देना,
यह कहलाता है ।
५ अफरिग्रहव्रत, स्ेपदार्थों में ममत्व बुद्धि के त्याग
को कहते है; क्योकि असत् पदार्थौ म भी मोह होने से
चित्तश्रम होता है ।
मूलगुण के रक्षण के लिये उत्तरगुण [ अष्टप्रवचनमाता
के नाम से व्यवहृत ] पोच समिति ओरं तीन गुप्ति कहलाते
है । जिनके नाम इयंसमिति, भापासमिति, एपणासमिति,
आदाननिक्षेपसमिति, पारि्ापनिकासमिति ओर मनोगुि,
वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति है ।
ईर्यासमित्ति, वरावर युगमात्र [ साढ़े तीन हाथ ] चष्टी
देकर उपयोगपू्वक चरने को कहते ह । समिति शब्द का
अथं सम्यक् प्रकार की चेटा हे ।
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