जैन तत्त्व दिग्दर्शन | Jain Tattva Digdarshan

Jain Tattva Digdarshan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७) २ चरत [सल] वत; भिय हितकारक वाक्य फो कहते है; न फि जिससे किंसी जीवपर आधात पर्हैचे, या कटु हो । ३ अस्तेय तत वह है, जिसमें किसी प्रकार की चोरी न हो; क्योंकि मनुष्यों के बाह्य प्राण धनही हैं उसके हरण करने से मनुष्य के प्राणही हत होते हैं । ४ ब्रह्मचयेत्रत-देव, मनुष्य ओर तियेश्व से उत्पन्न होन- वाले १८ प्रकार के कामो से मन), वचन तथा काय से निदत्त होना ओर करनेवाले को सहायता नहीं देना, यह कहलाता है । ५ अफरिग्रहव्रत, स्ेपदार्थों में ममत्व बुद्धि के त्याग को कहते है; क्योकि असत्‌ पदार्थौ म भी मोह होने से चित्तश्रम होता है । मूलगुण के रक्षण के लिये उत्तरगुण [ अष्टप्रवचनमाता के नाम से व्यवहृत ] पोच समिति ओरं तीन गुप्ति कहलाते है । जिनके नाम इयंसमिति, भापासमिति, एपणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति, पारि्ापनिकासमिति ओर मनोगुि, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति है । ईर्यासमित्ति, वरावर युगमात्र [ साढ़े तीन हाथ ] चष्टी देकर उपयोगपू्वक चरने को कहते ह । समिति शब्द का अथं सम्यक्‌ प्रकार की चेटा हे ।




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