एकाकी | Ekaki

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Ekaki by वियोगी

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) की छाती पर छनभर सिर रखने से सुझे ऐसा जान पड़ता था मानो मैंने जलती हुई भट्टी पर सिर रख दिया हो। मेरी छोटी वहन, जो महज तीन साल की एक मोटी-सी सुन्दर वच्ची थी, वरावर मो के पास खेला करती थी--साँ चुपचाप अपने इस अन्तिम खिलौने का खेल देख-देख कर जीवन की उदास ओर कष्टमयी घड़ियों को सरस बनाने की चेष्टा करती थी । कभी-कभी पिता जी भी माँ के निकट वैठा करते थे- उनकी कोटरगत्‌ लाचार आँखे मानो भावी-भयकर दृश्य देखने की कल्पना से ही घवराई-सी लगती थीं। कभी-कभी माता को दवा पिल्ाते और चुपचाप रोते भी, मैंने उन्हें देखा था। मेरी चाची यदाकदा अस्सा के निकट आती थीं--और फिर क्षण भर वैठ कर वह्‌ चली जाती, यदयपिवे भी उसी घरमे रहती थीं, जिसमे हम रहते थे । मो की वीमारी के कारण मेरी चाची पर यृहस्थी का भार विशेष रूप से आ पड़ा था। वह इस भार को वहन करती हुई थकावट के स्थान पर एक ऐसे गुप्त अननन्‍्द का अनुभव कर रही थी, जिसे कोई भी समभदार व्यक्ति अपने हृदय के भीतर दवा कर रखना ही उचित सममेगा । (२) एक दिल में देवनारायण की ठो दुधार बकरियों को पकड़ कर खेत की ओर ले गया। दिनेश भी पीछे से आकर साथ ५ । म चक्तरिर्यो का दूध दृहना श्रौर पीनां चादता था । देनेश न जाने कहाँ से एक फूटा हुआ ठीकरा उठा लाया । द्ध दृह्‌ कर इसने डसे पी लिया ओर वकरियों को एक रस्सी के सहारे बॉध दिया । सोचता था कि एक घण्टे में फिर दूध जमा हो जाने पर दृहा जायगा । द्विनेश ने कह्या--“दूथ से भी নি




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