सियाराम शरण गुप्त | Shiyaram Sharan Gupt

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Shiyaram Sharan Gupt by नगेन्द्र - Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्नु छ उसमें मेरे पद्म भी छुपा करते थे, जिनमें से अधिकांश उनके कंटस्थ दो जाते थे। प्राइमरी पाठशाला की पढ़ाई पूरी करके आगे पढ़ने का सुयोग वे न पा सके। कह नहीं सकता, इसमें हमारी अर्थरृच्छुता कितनी आड़े आई थी] उन दिलों हमारे छोटे कक्का थे, पहले से ही घर का सारा भार उन्हीं पर था | वे ऐसी बाघा से हार मांननेवाले न थे। तथापि यह ठीक है कि हमारी झाँसी की दुकान का काम-काज बंद हो गया था। सियारामशरण की देखभाल करनेवाला कोई विश्वासों जन वर्हा न था । हाईस्कूल में -उन>दिनों बोडिंग भी न था। होता भी तो उसमे उनका स्वना सम्मानजनक न समा जाता । जिस स्वूल के बनने में हमारे घर से श्राघक दान दिया गया था, उसमें उनका इस प्रकार रहना कदाचित्‌ दीनताचूचक सम्पा जाता । इसके पूर्व उत्त स्कूल में पढ़ने के लिए में सर्गी मेजा गया था । परन्तु बहुत-प्ता घन नष्ठ कप्के कोरा-का-कोरा लौट आया याश्रयवा लौय लिया गयाथा। इस भय से कि शरर की संग्रते में कहीं आगे ओर भी न बिगड़ जाऊँ | खेल-कूद तक तो कुशलता थी। इस प्रकार, सम्भव यही है कि परोक्ष रूप मे, में ही अपने अ्रनुज के शिक्षा-लाभ में वाधक बना । घर की प्रतिप्ठा के अनुकूल व्यापर के साघन न रह जाने से हम सभी माई प्रायः बैठे ठले थे। सियारामशरण साहित्य-सइन की कुछ लिखा-पढ़ी करने लगे | ठाकुर जी की पूजा का भार भी उन्हों पर झा गया | दम लोगों को पान खिलाना भी उनका काम था | इसे अ्वस्थ होने पर भी वे आग्रहपूर्वक बहुत दिनों तक करते रहे । साहित्य की ओर पहले से द्वी उनकी प्रद्मत्त थी | साहिद-सलदन का काम भी कितना था। सुतरामम्‌ रचना के लिए समय का अ्रमांव उन्हें न था। परन्तु जैसा उन्होंने वाल्य-स्ट्वति में लिखा है, अपनी पद्म-स्वना लेकर वे सीधे मेरे निकट नहीं आये। फिर भी यह एक ऐसी मिठाई थी जो अक्रेले-अकरेले नहीं खाई जा सकती थी । यही नहीं दूसरों को खिलाकर ही इसमें तृप्ति मिल सकतो थी। परन्तु भय-संकोच भी थोड़ा न था। मब्यकाल में हमारे संगीत श्रोर साहित्य की जो2ंद्शा हो गई थी उसे देखते हुए लोग कला की कितनी हो प्रशंसा क्यों न करें, कलाकारों के प्रति उनकी वैषा आस्था नहों रह गई थी। जित पथ में चरित्र के पतन की आशंकः! हो उसमें कीन गहस्थ अपने घर के लड़के का जाना ठीक समझेगा | स्वयं




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