पातञ्जलयोगदर्शनम | Paatanjalayodarshanam

Paatanjalayodarshanam by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(८५) । । রী भी पशुमांस.- अग्नि में डालकर देवता की ,अपेंनी की जाती थी द्रेंसाशयों की , सेक्रामेण्ट (8८८407९0 ) जौर आदाय के ऊपर . @2€ पाठ तथा मुसलमानों . द्वारा कुर्बानी और नमाज भी नैवेश्-समर्पण का छी रूप. है | | ॑ इस प्रकार के प्रवृत्तिधर्म-द्वारां स्वर्ग की प्राप्ति होती है, यह वेद में देखाजा - सकता है। ক্স ज्योतिरजंल >4 ->4 >< त्रिनाके ` त्रिदिवे दिवः ( ९।११३।७-९ ) इत्यादि वेंद्मन्त्र में यही कहा गया है | बौद्ध, ईसाई, मुसल्माने आदि भी ऐसे कर्म के इसी प्रकार के फल में विश्वास करते हैं | हु स्वर्ग और नरक-सम्बन्धी सत्य जानने के लिए. अछोकिक दृष्टि की आवश्यकता है। : - हमारे ऋषि और ईसाइयों आदि के- पैगम्बर (2१/०77#०) अलौकिक दृष्टि वाले व्यक्ति 5 थे। धंर्माचरंण करने के लिए मनुष्यों को' किसी न किसी प्रकार की कमंकाण्ड-पंडुतिं अहृण करनी पड़ती है। ऋषिशण यागयंत् पंद्धति का तथा ईसाई-इसंछाम-धर्मी कर्मकाणंड জী किसी न किसी पद्धति या सभर (21101) का यवलम्ब॒न कर धमाचरण कु न किसी पंदधति या ভিন (72821) का अवलरूम्बन कर धर्माचरण करते . रहे हैं। किन्तु अलौकिक शंक्ति-सम्पस्नं धर्मप्रवत्तक महापुरुष की अचेना तथा दान ` आदिं क्म सामान्यतया स्व॑र द्य मिरते है । টন . आपर्ष प्रवृत्तिधर्म कितने प्राचीन काल से आविष्कृत होकर प्वछा आ रहा हे, इसकी .. सीमा निर्धारित नहीं-की जा सकती 1 पाश्चात्त्य छोंग आपातकाल के, मोह से जो चार “ पच हजार वर्ष का अनुमान. छ्गाते-हैं! वह. संकोर्ण कल्पना के अतिरिक्त और . कुछ नहीं |. ` : निचृत्तिधम्‌ के दो प्रधान सम्प्रदाय हैं, आप तथा अनार्ष | आष सम्प्रदाय सांख्य, | वेदान्त. आदि और अनार्ष सम्प्रदाय बौद्, जैन आदि। यद्यपि आष सम्प्रदाय : सबका मूल है तथापि बोद्ध आदि छारा. अपने-अपने - सम्प्रंदाय-प्रवर्तकों की ही मूल .. मानने के कारण बौद्ध आदि अनाष कहे जाते हैं। .- _ `. 5. / निव्ृत्ति धर्म का मूठ मत और आचरण ये हैं :--पुण्य-द्वारा स्वग-लाभ होने पर ` भी खग-खाम -चिरस्थायी नदीं है, क्योंकिं उससे भी. जन्म-परम्परों की निदृत्ति नहीं ` दती । सम्यक्‌ दन्‌ जन्म-प्रम्परा या संसार्‌ कौ निदत्त का कारण हे । सम्यक्‌ योग _ अर्थात्‌ चित्तस्थेयरूप समाधि, ` तथा सस्यक्‌ वैराग्य: सम्यक्‌ द्शंन यां प्रहा के कारणं १०..कार की भ्रा घीनंखा-सम्बन्धो सतो पर पाश्चात्य विद्वान्‌ कितनी संचिते दृष्टि रखते है, यद इसो बात से पता लग सका हे कि 19 8एंत 1)178०7 ने तिक्कसंमतत चेद्म॑न्त्रको्ल ( ७००० ई, घूब ) को तथा शंकर बांलकृष्ण दीश्चित-संमस. बाद्यण- '.. अ्न्‍न्थकाछ (३८०० है. হুক ) को ध्ाछ४0 ल्ग इहा. हे ( 1९ ` ` ^ [0८०७४ ए. 333 ) [ संम्पादक ] '




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