ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव | Dhyan Shatak Tatha Dhyan Statva

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावचा डे निर्देश किया गया है उस प्रकार उपयुक्त विधोषायश्यकमाष्य झौर जीतकल्पसूत्र मे श्रपने नामका निददेश नहीं किया गया । जिस प्रकार उसे जिनभद्र की कृति मानने में नमस्कारविषयक पद्धति बाधक प्रतीत होती है उसी प्रकार उसे नियु क्तिकार प्रा भद्रबाहु की कृति मानने में भी वही बाघा दिखती है। यह ठीक है कि नियुं क्तिकार किसी नवीन प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए उसके प्रारम्भ में मगलस्वरूप नमस्कार करते है, पर बे सामान्य से तीथंकरो को नमस्कार करते देखे जाते है । यथा -- लित्यकरे भगवते श्रणुसरपरक्कमे धमितणाणी । तिण्णे सुगतिगठिगते सिद्धिपघपदेसए वे ।। झाव नि, ८० (१०२१): पृ. १६५. कही वे प्रकरण से सम्बद्ध गणघर झ्रादि को भी नमस्कार करते हुए देखे जाते हैं । जैसे-- एक्कारस बि. गणघरे पवायएं पदयणस्स बदामि । सब्व गणघरवस घायगवस पवयण च ॥। प्राव, नि. ८२ (१०५६), पृ. २०२. उन्होंने व्यानदातक के समान कड़ी थोगीदतर वीर जसे कियी को नमस्कार किया हो, ऐसा देखने में नही श्राया । श्रतएव हरिमद्र सुरि ने सहान्‌ भ्र्थ का प्रतिपादक होने से उसे जो शास्त्रा्तर कहा है उससे वहू एक स्वतत्र ग्रत्थ ही प्रतीत होता है । यदि वह मियुक्तिकार की कृति होता तो कदाचित्‌ वे उनका उल्लेख भी कर सकते थे । पर उन्होंने उसके कर्ता का उल्लेख नियुक्तिकार के रूप मे न करके सामान्य ग्रन्थकार के रूप में ही किया है । यथा-- १गाथा ११ की उत्थानिका में वे साधु के आतेध्यानविषयक दाका का समाघान करते हुए कहते है-- श्राह च ग्रन्यकार: । २ गा, २८-२६ में निर्दिष्ट घमंघध्यानविषयक भावना भादि १२ द्वारों के प्रसंग में वे कहते हैं कि _ यह इन दो गाथामो का सक्षिप्त प्र्थ है, विस्तृत श्रथ का कथन प्रत्येक द्वार में प्रन्थकार स्वयं करेंगे । यथा--इति..... गाथाइयसमासार्थ:, व्यासार्थ तु प्रतिद्वार ग्रन्यक्रार: स्वयमेव बक्ष्यति । सम्भव है कि टीकाकार हुरिभद्र सुरि को प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता का ज्ञान न रहा हो झथवा उन्होंने उनके नाम का निर्देश करना झ्रावश्यक न समभा हो । यह अवश्य है कि प्रस्तुत प्रत्थ की रचना नियु क्ति- कार झा. भद्रबाहु श्रौर जिनभद्र क्षमाश्मण के समय के श्रास-पास ही हुई है । जैसा कि भागे स्पष्ट किया जानेवाला है, इसका कारण यह हैं कि उसके ऊपर भरा. उमास्वाति विरचित तस्वाथंसूत्र के भ्रन्तर्गंत ध्यान के प्रकरण का काफी प्रभाव रहा है । तत्त्वाथसूत्र का रचनाकाल प्राय' तीसरी शताब्दि है । इसी प्रकार वह स्थानाग के श्रन्तर्गंत ध्यान के प्रकरण से भी श्रत्यघिक प्रभावित है । वतमान झाचारादि श्रागमों का संकलन वलभी वाचना के समय श्रा. देवद्धि गणि के तत्त्वावधान मे बीर निर्वाण के पश्चात्‌ ६८० ब्षों के श्रास-पास किया गया है । तदनुसार वह (स्थानाग) पाचवी छताब्दि की रचना ठहरती है । इससे जात होता है कि प्रस्तुत ध्यानशतक की रचना पाचवी शताब्दि के बाद हुई है। साथ ही उसके ऊपर चुूकि हरिभद्र सूरि के द्वारा टीका रची गई है, इससे उसकी रचना हरिभद्र सूरि (प्रायः विक्रम की की ८वी छताथ्दि) के पुर्व हो चुकी है, यह भी सुनिदिचित है । इसके भ्रतिरिक्त जैसा कि हरिभद्र सुरि ने १. जिनमद्र क्षमाश्रमण द्वारा विरचित विशेषणवती, बुहत्क्षेत्रसमांस श्रौर बुहत्सप्रहणी भादि भ्रन्य कुछ कृतिया भी है, पर उनके सामने न होने से कहा नहीं जा सकता कि वहां भी उनकी यही पद्धति रही है या श्रन्य प्रकार की । २. यथा--इदं गाथापंचक जगाद निर्यूक्तिकार:--आव. नि. हरि टी. ७१ (उत्थानिका)




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