चौतीस स्थान दर्शन | Chotish sthan Darshan

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Chotish sthan Darshan by आदिसागरजी - Adisagarji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्ॉीतीस स्थान दर्शन श्ना क सतय आपका प्रकृति स्वास्थ्य बिल्कुत ठीक नहों था रक्त क्षय्र से आप कमार्‌ थे लेकिन उसका तनिक भी ख्याल न कर श्राप द्द्‌ श्रात्मवल से संयम पालन में दत्तचित्त रहे -न जाने कैसे शरीर स्वास्थ्य डिना किसी भौतिक इलाज के स्वयं ही कुछ महितों में ठीक हो गया । =, क कुछ भर्से.. तक भ्राचाये जी के. सान्निध्य में रहकर मल चारादि ग्रथों का अध्ययन किया उसके बाई दक्षिण उत्तर के तीर्थ यत्रा को निकले आपने आज तक श्री सिद्ध क्षेत्र सम्मेद शिखर जी की कई बार यात्रा की और शेष उत्तरदक्षिण सिद्ध क्षेत्र अतिशय क्षेत्रों की भी कई बार यात्रा की, बिहार में जहां भो चातुर्मास होता था श्रखंड स्वराघ्यय चनताथा। ञ्रापकी महाव्रत परिपालना बड़ी सूक्ष्म होती है जिस पर आपके परात्र गुरु आचायें जी की छाया दिखाई देती है, 'क्षा लेने के बाद थोड़े ही दिनों में आप ग्रव प्रथम नसलापुर प्राये तव.की एक घटना अविस्मर- णीय है । | | 0 श्राप जत्र नकलापुर से रायब्राग को चातुर्मास के लिए प्रस्थान करते का इरादा कर रहे थे कि राग्रवाग के एक गण्यपान्य प्रमुख श्री चित्तामंरि सातप्थ बिराज ने দল आदमी चिट्ठी देकर नसलापुर भेजा, लिखा था कि मुनि श्री आदिसागर महाराज हमारे गांव में च'सुर्मास के लिए आने की सोच रहे हैं लेकिन उनका चातुमस यहां निभना मुह्िकिल है अतएवं वह कुछ अन्य ग्राम पसंद न करें हमारे यहां न आयें | - । चिट्ठी देखकर झ्राप तनिक भी चिंतित न हुए लेकिन साथ ही साथ हृढ़ता से अपना निग्चय दुहराया ओर रायवाग पधारे, श्री विराज साहब ने पन्द्रह दिन तक महाराज की अन्तर्वाह्य परीक्षा कर ली और अपनी भूल के लिए क्षमा याचना वी, इत्तना ही नहीं तो संघपत्ति बन के. संघ को श्री क्षेत्र सम्मेद शिखर को ले गये और मुनिराज के एकनिष्ठ भक्त बन गये, यह था सत्वेषु मैत्री, गुणीषु प्रमोद श्रौर विपरीत वृतौ माध्यस्थ का प्रत्यक्ष प्रयोग, जिमका परिपाक जैनी दिगम्बर दीक्षा ह । कारंना ता० ५-१-६७ | ১. বৃ -₹ ग्रमीण ज्ञानोपयोग यह आ्रापका विशेष हैः दिन रात अध्ययन, मनन, चित्तन, प्रवचन, ध्यान, उपदेश और लेखन चालू रहता है--आज तक जितना लिखा उठमें से आधा भो प्रकाशित न हो हुआ जौ गङ्मय छप गया ग्रौर प्रकाशित हुआ है उसमें से कुछ यह ह १. त्रिकालवर्ति महापुरुष वारासिवनी २. नित्य नैमित्तिक क्रियाव लाप छिन्दवाड़ा ३. श्राह्मरदान विधि ক্সাহা ४, सूतक विधि वारासिवनी ५. चौंतीस स्थान दर्शन नागपुर इसके अ्रलावा जो प्रकाशन के लिए मंजूर हुआ लेकिन प्रकाशित न॑ हुआ वह _ ६. सद्वोध दृष्ठांत माला जीवराज ग्रथ माला (मराटी) सोलापूर * विशेषत: चौंतीस_ स्थान दर्शन के लिए गत कई साल से विद्वद्दर सिद्धांत मर्मज्ञ ब्रह्मचारी पंडित उलफतराय जी जैन रोहतक वालों ने अ्रथक परिश्रम करके यह ग्रंथ निर्माण किया है शास्त्रों में जो श्राजत॒क केवल सख्या मे कहा सुना जाता था उसको शब्दों में रखने का महसप्रयास किसी ने नहीं क्रिया था वह अपूर्व साहस इन दोनों वृद्ध महा- पुरुषों ने अपनी आयु पाऊणशसों से ऊपर होने पर करके जैन मुश्क्ष साधकों के सामने एक नया ग्रादर्श रख / दया है, धन्य है आप दोनों के जिनवाणी श्रद्धा की, अथक परिश्रम को और दुर्दम्य साहस की-- । न इसमें कोई लौकिक ल,भ है न ख्याति की चाह है यह तो ्रात्महित साधना करते करते किया हुम्रा निरपेक्ष महत्कार्यं है जो युगो तक श्रजर अमर रहने वाला है और दीप स्तम्भ के समान मुमुक्षुओं को अपने संसार सोगर मे मिथ्यात्व शलपर धड़क देकर फ़ूटने वाले नोका को वंचान वाला अ्रमोध साधन है । प० पू० श्री १०- आदिसागर जी महाराज और पूज्य ब्रह्मचारी पंडित उलफतराय जी के चरण सानिष्य में रहने का मुझे कई दिन तक भौका भिला, आपके सान्निध्य से मैं कृतार्थ हुआ ऐसी मेरी प्रामाणिक मान्यता है आपके रत्नमय साधना की मेरे शत-झत प्रशिपात । डा० हेमचन्द्र जेन कारेजा (अकोला)




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