जयघवलाटिका | Jayghavalatika

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Jayghavalatika by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(5) तत्तो सेसाण प्रउत्तिदंसगादो जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओं মা অন্ন समारंसदन्बो त्ति मणेणावहारिय गोदमथेरेण मगर तत्य कयं । पुण्ण-ङम्म-बेधत्थाणं देकषव्वयाणं मगलकरणं जुत्तं ण गु्णीणं कम्मक्खय- केक्खुवाणमिीद भ वेत्तुं जच पृण्ण-बंधःउत्तं पडे मिमेसाभावादो पगटस्तेव सराग-सेजमस्स विधरिशवागप्पततगादो । ण च संजम प्पसंग-भावेण णिच्छुई-गमणामाच-प्पतगादो सराम- सेजमो गुण-सेडि णिजराए कारणं तेण बंधादा मोको असेखेञ्ज-गुणो ति सराग-संजमे मरुणीणे वदणं जुचपिदि ण पथ्चवद्भाणं कायव्वे । अरहव-णमो- क्षारो सपरिथबेधादो असंखेऽज-गुण-कम्म-क्खयकारओ त्ते तत्थ वि सुणीणं 8 ततः शेषाणां मरद्त्तिद रीनाद. यो बहुजीवानुग्रहकारी व्यवदारनयः स चैव समाध्चितव्य इति मनसाचधा्य गौोतम-स्थविरेण मंगलं तत्र छतम्‌ । पुण्य-कथे - बंधार्थिनां देशबतीनां मंगलकऋरणं युक्त, न शुणीनां कक्षयकांक्षिणामिति न चक्ते युक्ते पुण्य-बंध-हेतुत्व॑ थ्राति विशेषभावाद मंगरूस्थैव सराग-सेयमस्यथ वि्पार- त्याग-प्रसगात्‌ । नच सेयम-प्रसकु-भावेन निवुत्ति-ग्मनाभाव-प्रसज्ञास खराग-खंयमें गुणेश्रणी(-निजरायाः कारणे, तेन बघाद्‌ मेक्षोऽसवख्येयगुण इति सराग-सेयम मुनीनां चसन युक्तामेति न प्रत्यवस्थानं कनैव्यम्‌ 1 अदेन्नयस्कारः सास्बतिकबेधाद्‌- सख्यय-गुण-क्म -श्चय-कारक इति तत्रापि मुनीनां -- इनमे जो चेष ( इतर ) दै उनकी प्रचत्ति को देखकर, जो बहत जीवों का জুস करनेवाला न्यबह्वार नय है उसका आश्रय लेना चाहिये, ऐसा मन में विचार कर गीतम स्थविर ने वहां मंगर किया । “জী ঘন আবম के अभिषी देशत्रती ( श्रावक ) दैं उन्हे मंगल करना उचित है, कमक्षय की आकांक्षा रखनेवाले गुणी ( सुनिर्यो ) को नदी ! दसा कदन मी उचिते नही है, क्योंकि पुण्यबंध के द्वेतुत्व के प्रति उन्हे कोई विशेष भाव नही है, तथा इससे तो जो मंगछ सरागसंयम दे उसकेद्दी বা त्याग का प्रसङ्ग भायग। | और संयमग्रसंग के भाव में निर्वाणमन के अभाव का प्रसंग नहीं हो सकता । सरागसंयम रुणेप्रणी-निर्जरा का कारण ड ओर बंध से मोक्ष असंख्येय गुणा ( अधिक उत्तम ) है, इतीति सराग संयम मँ पुनिर्जं का! वर्तैना योम्य दै | अतः ( मगर का ) प्रल्वस्यान अर्थात्‌ निराकरण नही करना चाद्ये । अरहत का नमस्कार साम्प्रातिक बंधसे भसंस्येय गुणा कर्मक्षयकारक दे इससे उसमें भी मुनियों की




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