उत्तराध्ययन सूत्र | Uttaradhyayan Sutra
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
41 MB
कुल पष्ठ :
844
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)झौर ब्राह्मण का सच्चा स्वरूप भी इसमें प्रकट किया गया है। सम्यक आचार ही समाचारी है। यह् 'समाचारी
भ्रध्ययन में प्रतिपादित है। संघ-व्यवस्था के लिए अनुशासन आवश्यक है। यह 'खलुकीय” नामक सत्ताईसवें
झ्रध्ययन में बताया गया है। ज्ञान, दर्शनं, चारित्र और तप, ये मोक्ष के साधन हैं और इनकी परिपृर्णता ही
मोक्ष है । उनतीसवें अध्ययन में सम्यक्त्वपराक्रम के सम्बन्ध मे ७४ जिन्ञासाभ्रों एवं समाधानो के द्वारा वहूत ही
विस्तार के साथ शप्रनेक विषयों .का प्रतिपादन किया गया है। तप एक दिव्य और भव्य रसायन है, जो साधक
को परभाव से हटा कर स्वभाव में स्थिर करता है। तप का विशद विश्लेषण- जनदशंन की अपनी देन है।
विवेकयुक्त प्रवृत्ति चरणविधि है । उससे संयम परिपुष्ट होता है। अविवेकयुक्त प्रवृत्ति से संयम दूषित होता है।
इसीलिए चरणविधि में विवेक पर वल दिया है। साधघतना में प्रमाद सबसे बड़ा वाधक है, इसलिए प्रमाद के स्थानों
से सतत सावधान रहने हेतु 'ग्रप्रमाद” अध्ययन में विस्तार से विश्लेषण किया गया है। वि-भाव से कर्म-वन्धन
होता है श्रौर स्व-भाव से कर्म से मुक्ति मिलती है। कर्म की मूल प्रकृतियों का “कर्मप्रकरति' अध्ययन में वर्णन है ।
केपाययुक्त प्रवृत्ति कमवन्धने का कारण है । शुभाशुभ प्रवृत्ति का मूल आधार शुभ एवं अ्रशुभ लेश्याएंँ हैं। लेश्याओ्रों
का इस अध्ययन में विश्लेषण है। वीतरागता के लिए असंगता आवश्यक है। केवल गृह-का परित्याग करने
मात्र से कोई भ्रनगार नहीं वनता । जीव और श्रजीव का जव तकं भेदज्ञान नहीं होता, तव तक सम्यग्दर्शन का
दिष्य श्रालोक जगमगा नहीं सकता, जीवाजीव विभक्ति प्रघ्ययन में इनके पुथक्करण का विस्तृत निरूपण हे ।
इस प्रकार यह भ्रागम विविध विषयों पर गहराई से चिन्तन प्रस्तुत करता है । विपय-विश्लेषण की ष्टि
से गागर में सागर भरने का महत्त्वपूर्ण कार्य इस आागम में हुमा है | संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण
जैनदर्शन, जैनचिन्तन श्रौर जैनधर्मं का सार इस एक आगम में झा गया है । इस आभगम का यदि कोई गहराई से
एवं सम्यक प्रकार से परिशीलन कर ले तो उसे जैनंदर्शन का भलीभाँति परिज्ञान हो सकता है ।
उत्तराष्ययन की यह मौलिक विशेषता है कि श्रनेकानेक विपयों का संकलन इसमें हुआ है । दशर्वकालिक
ओर आचारांग में मुख्य रूप से श्रमणाचार का निरूपण है। सूत्रकृतांग में दार्शनिक तत्त्वों की गहराई है । स्थानांग
ग्रौर समवायांग श्रागम कोशशैली में निर्मित होने से उनमें आत्मा, कम, इन्द्रिय, शरीर, भूगोल, खगोल, नय,
निक्षेप श्रादि का वर्णन है, पर विश्लेषण नहीं है । भगवती में विविध विषयों की चर्चाएँ व्यापक रूप से की गई हैं ।
पर वह इतना विराट है कि सामान्य व्यक्ति के लिए उसका अवगाहन करना सम्भव नहीं है। ज्ञातासूत्र में कथाश्रों
की ही प्रधानता है। उपासकदणशांग में श्रावक-जीवन का निरूपण है । श्रन्तकृदशा श्र भ्रनुत्तरौपपातिक में साधकों
के उत्कृष्ट तप का निरूपण है। प्रश्नव्याकरण में पांच आश्चवों और संवरों का विश्लेषण है तो विपाक में पुण्य-पाप
के फल का निरूपण है । नन््दी में पांच ज्ञान के सम्बन्ध में चिन्तन है | श्रनुयोगद्वार में नय और प्रमाण का विश्लेषण
है। छेदसूत्रों में प्रायश्वित्तविधि का वर्णन है। प्रज्ञापना में तत्त्तों का विश्लेषण है। राजप्रश्नीय में राजा प्रदेशी
झौर केशीश्रमण का मधुर संवाद है। इस प्रकार श्रागम-साहित्य मे जीवनस्पर्णीं विचारों का गम्भीर चिन्तन हुआ
है। किन्तु उत्तराध्ययन में जो सामग्री संक्षेप में संकलित हुई है, वेसी सामग्री भ्रन्यत्न दुलभ है। इसलिए भ्रन्य
भ्रागमों से इस श्रागम की अपनी इयत्ता है, महत्ता है | इसमें धर्मकथाएँ भी हैं, उपदेश भी श्र तत्त्वचर्चाएँ भी हैं ।
त्याग-वैराग्य की विमल धाराएंँ प्रवाहित हो रही हैं। धर्म श्र दर्शन तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र का इसमें सुन्दर
संगम हुप्ना है ।
मेरी चिरकाल से इच्छा थी कि मैं उत्तराष्ययन का अनुवाद, विवेचन व सम्पादन करू । उस इच्छा की
पूत्ति महामहिम युवाचार्य श्रीमधुकरमुनि जी की पावन प्रेरणा से सम्पन्न हो रही है। युवाचार्यश्री ने यदि प्रवल
प्रेरणा न दी होती तो सम्भव है अभी इस कार्य में श्रधिक विलम्ब होता । श्रागम का सम्पादन, लेखन करना बहुत
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