समाधि - मरणोत्साह - दीपक | Samadhi Maranautsaah Deepak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रावकथन श्७ उपस्थित हो जाय तव धर्मकी रक्षा--पालनाके लिये जो देहका विधि- पूर्वक त्याग है उसको सत्लेखना--समा' घमरण कहते है ।' इस लक्षण-निर्देशभे 'निः्प्रतीकारे' और 'धर्माय' ये दो पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं । उपसगादिकका “नि.प्रलीकार” विशेषण इस बातकों सूचित करता है कि अपने ऊपर आए हुए चेतन-अचेनन-कृत उपसर्ग, दुभिक्ष तथा रोगादिकको दूर करनेका जब कोई उपाय नहीं वन सकता तो उसके निरमित्तको पाकर एक मनुष्य सत्लेखनाका अधिकारी तथा पात्र होता है, अन्यथा--उपायके सभव भर सशवय होने +र--वह उसका अधिकारी तथा पात्र नही होता 1 दूसरा “धर्माय” पद दो दृष्टियोको लिये हुए है--एक अपने स्वीकृत समीचीन धमकी रक्षा--पालनाकी और दसरी आत्मीय धर्मको यथाशक्य साधना- आराधना की । धर्मकी रक्षादिके अर्थ शरीरके त्यागकी वात सामान्य रूपसे कुछ अटपटी-सी जान पड़ती है, क्योकि आस तौरपर 'धघर्साथिकामसोक्षाणां शरीर साधन मतम्‌' इस चावंयके अनुसार शरीर धर्मका साधन माना जाता हैं और यह वात एक प्रकारसे ठीक ही है, परन्तु शरीर धर्मका सर्वया अयवा अनन्यतम साधन नहीं है, वह साधक होनेके स्थानपर कभी-कभी वाधक भँहो जाता है । जव शरीरकों कायम ( स्थिर रखने ) अथवा उसके अस्तित्वसे धर्मके पालनमे वाधाका पड़ना अनिवायं हो जाता है तब धम्मेकी रक्षाय॑ उसका त्याग ही अ्रेयस्कर होता है यही प्हली हर्ट है जिसका, यहाँ प्रधानतासे उल्लेख है । विदेशियों तथा विधरमियोंके आक्रमणादि द्वारा ऐसे कितने ही अवसर आते हैं जब मनुष्य शरीर रहते धर्मको छोडनेके लिये मजबर किया जाता है अथवा मजबूर होता है। अत धर्मप्राण मानव ऐसे अनिवायें उपसर्गादिकका समय' रहते विचारकर धर्म-श्रष्टतासे पहले दी वडी खुशी एव सावधानीसे उस धर्मको साथ लिये हुए देहका त्याग करते हैं जो देहसे अधिक प्रिय होता है । दूसरी दृष्टिकि अनुसार जब मानव रोगादिकी असाध्तवस्था ड्वौते हुए या अन्य प्रकारसे मरणका होता अनिवार्प समझ लेता है तब वह शीघ्रताके साथ धमकी विशेष साधना--आराधनाके लिये प्रयत्नशील होता है, किये हुए पाणेकी आलोचना करता हुमा महाब्रतों तकको घारण करता है और अपने पास कुठ ऐसे साधर्मीजनोकी योजना करता है जो उसे सदा धर्ममे सावधान रकखे, धर्मोपदेश सुनावें और दुःख तथा




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