प्रेमचंद रचनावली भाग 20 | Premchand Rachanavali Vol. 20

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Premchand Rachanavali Vol. 20 by प्रेमचंद - Premchand

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रेमचंद स्मृति अंक 15 पिचकारियों की धार से और गुलाल से उस दल ने उनका ऐसा सम्मान किया कि एक बार तो प्रेमचंद जी भी चौंक गए। पलक मारने में वह तो सिर से पांव तक कई रंग के पानी सं भींग चुके थे। हड़बड़ाकर उठे क्षण-इक रुके स्थिति पहचानी और फिर वह कहकहा लगाया कि मुझे अब तक याद है। बोले-अरे भाई जैनेन्द्र हम तो मेहमान हैं। मैंने आगत सज्जनों से जिनमें आठ बरस के बच्चों से लगाकर पचास बरस क बुजुर्ग भी थे परिचय कराते हुए कहा-आप प्रेमचंद जी हैं। यह जानकर सब लोग बहुत प्रसन्न हुए। प्रेमचंद जी बोले-भाई अब तो खैर है न। या कि अभी जहमत बाकी है? लेकिन इन दिनों खेरियत का भरोसा क्या कीजिए। और होली के दिन का तो और भी ठिकाना नहीं है। इस पर प्रेमचंद जी ने फिर कहकहा लगाया। बोले-तो कौन कपडे बदले। हम तो यहीं बेठते हैं खाट पर कि आए जो चाहें। सच यकीन करना मुश्किल होता है कि वह दिन अभी एक बरस पहले था और प्रेमचंद जी अब नहीं हैं। फिर भी प्रेमचंद जी तो नहीं ही हैं। इतने दूर तो गए हैं कि जीते जी उन्हें नहीं पाया जा सकता। इस सत्य को जैसे भी चाहें हम समझें चाहे तो उसके प्रति विद्रोही ही बने रहें ए7 किसी भी उपाय से उसे अन्यथा नहीं कर सकते। 3 छुटपन से प्रेमचंद जी का नाम सुनता देखता आया हूं। वह नाम कुछ-कुछ इस तरह मन में बस गया था जैसे पुराण-पुरुषों के नाम। मानों वह मनोलोक के ही वासी हैं। सदेह भी वह हैं और इस कर्म-कलाप-संकुलित जगत में हम तुम की भांति कर्म करते हुए जी रहे हैं-ऐसी सम्भावना मन में नहीं होती थी। बचपन का मन था कल्पनाओं में से रस लेता था। उन्हीं पर पल-झूलकर वह पक रहा था। सन्‌ 26 म॑ शायद या सन्‌ 27 में रंगभूमि हाथों पड़ी। तभी चिपटकर उसे पढ़ गया। तब कदाचित्‌ एक ही भाग मिला था वह भी दूसरा। पर उससे क्या। प्रेमचंद जी की पुस्तक थी और शुरू करने पर छूटना दुष्कर था। उसे पढ़ने पा मेरे लए प्रेमचंद जी और भी वाध्यता से मनोलोक कं वासी हों गए। पर दिन निकलते गए और इधर मेरा मन भी पकता गया। इधर उधर की सूचनाओं से बोध हुआ कि प्रेमचंद जी लेखक ही नहीं हैं और आकाश- लोक में ही नहीं रहते वह हम- तुम जैसे आदमी भी हैं। यह जानकर प्रसन्नता बढ़ी यह तो नहीं कह सकता। पर यह नया ज्ञान विचित्र मालूम हुआ और मेरा कौतूहल बढ़ गया। सन्‌ 29 आते- आते मैं अकस्मातू कुछ लिख बेठा। यो कहिए कि अघटनीय ही घटित हुआ। जिस बात से सबसे अधिक डरता रहा था-यानी लिखना-वही सामने आ रहा। इस अपने दुस्साहस पर मैं पहले-पहल तो बहुत ही संकुचित हुआ। मैं और लिखूं-यह बहुत ही अनहोनी बात मेरे लिए थी। पर विधि पर किसका बस। जब मु पर यह आविष्कार प्रगट हुआ कि मैं लिखता हूं तब यह ज्ञान भी मुझे था कि वह प्रेमचंद जो पूरी रंगभूमि को अपने भीतर से प्रगट कर सकते हैं वही प्रेमचंद जी लखनऊ से निकलने वाली माधुरी के संपादक हैं। सो कुछ दिनों बाद एक रचना बडी हिम्मत बांधकर डाक से मैंने उन्हें भेज दी। लिख दिया कि यह संपादक




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