प्रेमाश्रम | Premashram

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Premashram by प्रेमचंद - Premchand

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

Author Image Avatar

प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

Read More About Premchand

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रेमाभस १९ गौस खाँ ने कदु स्वर से कहा, वह कहाँ हैं मनोहर, क्या उसे आते शरम आती थी ? विकासी ने दीनता पूर्वक कहा, सरकार उनकी बातो का कुछ ख्याल न करें । आपकी गुलामी करने को मै तैयार हूँ ! कादिर--यूं तो गऊ है, किंतु आज न जाने उसके सिर कैसे भूत सवार हो गया। क्यो सुक्खू महतो, आज तक गाँव मे किसी से लडाई हुई है? सुक्खू ने वगले झाँकते हुए कहा, नही भाई, कोई शूठ थोडे ही कह देगा। कादिर--अब बैठा रो रहा है। कितनां समझाया कि चल के खाँ साहब से कसुर माफ करा ले, लेकिन दशरम से आता नही है। गौस खाँ--शर्म नही, शरारत हैं। उसके सिर पर जो थूत चढ़ा हुआ है उसका उतार मेरे पास है। उसे गरूर हो गया है। कादिर--अरे खाँ साहब, बेचारा मजूर गरूर किस वात पर करेगा ? मूरख उजड्ड आदमी है, बात करने का सहूर नही है। गोस खॉँ--तुम्हे वकालत करने की जरूरत नहीं। मैं अपना काम खूब जानता हूँ। इस तरह दवने लगा तब तो मुभसे कार्रिदागिरी हो चुकी। आज एक ने तेवर बदले हैं, कछ उसके दूसरे भाई शेर हो जायेंगे। फिर जमीदार को कौन पूछता है। अगर पलट मे किसी ने ऐसी शरारत की होती तो उसे गोली मार दी जाती। जमीदार से भाँखे बदलना खाला जी का घर नही है। यह कह कर गौस खाँ टाँगन पर सवार होने चले। विलासी रोती हुई उनके सामने हाथ वाँध कर खडी हो गयी और वोली, सरकार कही की न रहूँगी। जो डॉड चाहे लगा दीजिए, जी सजा चाहे दीजिए, मालिकों के कान मे यह बात न डालिए। लेकिन खाँ साहब मे सुक्खू महतो को हत्थे पर चढा लिया था। वह सूखी करुणा को अपनी कपटें- चाल में बाघक बनाना नही चाहते थे। तुरत घोड़े पर सवार हो गये और सुंक्खू को आगे-आगे चलने का हुक्म दिया। कादिर मियाँ ने धीरे से गिरघर महाराज के कान में कहा, क्या महाराज, बेचारे मनोहर का सत्यानादा करके ही दम लोगे ? गिरघर ने गौरव-युक्त भाव से कहा, जब तुम हमसे आँखे दिखलाओगे तो हम भी अपनी-सी करके रहेगे। हमसे कोई एक अगुल दबे तो हम उससे हाथ भर दवने को तैयार हैं। जो हमसे जौ भर तनेगा हम उससे गज भर तन जायेगे । कादिर--यह तो सुपद ही है, तुम हक से दबने लगोगे तो तुम्हे कौन पुछेगा ? मुदा अब मनोहर के लिए कोई राह निकाठो। उसका सुभाव तो जानते हो। गुस्तैछ आदमी है, पहले बिगड़ जाता है, फिर बैठ कर रोता है। बेचारा मिट्टी मे मिल जायगा। गिरघर--भाई, अब तो तीर हमारे हाथ से निकल गया। कादिर--मनोहर की हत्या तुम्हारे ऊपर ही पड़ेगी। गिरघर--एक उपाय मेरी समझ मे आता है। जा कर मनोहर से कह दो कि मालिक के पास जा कर हाथ-पैर पड़े। वहाँ मै भी कुछ कह-सुन दूँगा। तुम लोगों के साथ वेकी करने का जी तो नही चाहता, काम पड़ने पर घिधिआते हो, काम निकल




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now