प्रबोध चंद्रोदय और उसकी हिंदी परम्परा | Prabodhachandroday Aur Usakii Hindii Paramparaa

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Prabodhachandroday Aur Usakii Hindii Paramparaa by सरोज अग्रवाल - Saroj Agarwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्थन डॉ० सरोज अग्रवाल लिखित ्रबोधचन्द्रोदय ओर उसकी हिन्दी परम्परा को प्रकाशित देखकर मुदे प्रसन्नता होना स्वाभाविक है। यह्‌ इनक शोघःप्रबन्ध है। इसी पर इन्हे पी-एच० डी ० की उपाधि आगरा विश्वविद्यालय ने प्रदान की है। इस प्रबन्ध की उत्कृष्टता का एक प्रमाण यह भी है कि इसे विश्वविद्यालय के द्वारा श्री सी० बी० अग्रवाल स्वर्ण पदक' प्रदान किया गया है। 'प्रबोधचन्द्रोदय श्री कृष्ण मिश्र ने संस्कृत में लिखा था। संस्कृत के इस ग्रंथ का संस्कृत में ही महत्व स्वीकृत नहीं हुआ, हिन्दी में भी इसने अत्यन्त लोक-प्रियता प्राप्त की। इसके अनुवाद हुए, रूपान्तर हए तथा इसकी प्रेरणा से इसकी शैली के अनुकरणमें भी कितने ही ग्रथ लिखे गये। अतः इसका महत्व स्वयंसिद्ध है। प्रबोधचन्द्रोदय पहले तो नाटक है, नाटक भी ऐसा जिसमें पात्र' रूपक-पात्र है--जिससे इसे &16४2०४८७* नाटक कहा जा सकता है। रूपक, आध्यात्मिक तथा धामिक तत्वों को मूतंरूप देकर प्रस्तुत किया है। फलत: यह एक धामिक नाटक है: धामिक नाटक भी ऐसा कि जिसमें विवित्र धर्मों और सप्रदायों की आलोचना है और उनके दाशनिक तत्वों का विवेचन भी है। इस प्रकार इस नाटक में कितनी ही विशेषताएँ एक साथ ही प्रस्तुत कर दी गयी हैं। धर्म और दर्शन के नीरस तत्वों को कथातत्व, अभिनय तथा रस-संचार से युक्त करके सभी कोटि के व्यक्तियों के लिए इसे ग्राह्य बना दिया गया था। एसे अनोखेपन ने ही इसे इतना लोकप्रिय तथा अनुकरणीय बनाया । भारतीय साहित्य के इस अमूल्य रत्न का मूल्य हिदी के लिए भी सोरहवीं शती से चारसौ वर्षो तक अक्षण्ण बना रहा है। इसी के अन्तदंशेन तथा इसकी परंपरा के स्वरूप को हूदयंगम करने कराने के लिए इस विदुषी लेखिका ने यह रोध-प्रवंघ प्रस्तुत किया है और पाठक देखेंगे कि लेखिका इस प्रयत्न में सफल हुई है। में आएंभ से ही लेखिका के प्रयत्नों से परिचित रहा हूं, अत: भली प्रकार कह सकता हूं कि इसने किसी भी अड़चन को अडचन नहीं माना और अपने धेयें को




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