बदलते चेहरे | Badalate Chehare

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Badalate Chehare by डी. जयकान्तन - D. Jayakantanन. वी. राजगोपाल - N. V. Rajgopal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बदलते चेहरे 11 इतना भी नहीं किया कि उस पत्रिका को कनकम के पसारे हुए हाथ में रख दे । पत्रिका को नीचे पटका और अपने कमरे के भीतर जाकर किवाड़ बंद कर लिये और खाना खाये बिना ही सो रही । उस रात कनकम ने हाल का दीया नहीं बुझाया । उसी कहानी को बार बार पढ़ती और रोती रही । उसी दिन से कनकम कोई बात याद करती हुई रह रहकर रोती रहती है। वह चोरी-छिपे रो रही है । गंगा को पता तक नहीं कि उसकी मां रो रही है । पता होने पर भी वह इसकी चिंता नहीं करती । जहां तक उसका संवंध है काफी पहले ही उसने यह तय कर लिया था कि अश्रुजल एक प्रकार का अशुद्ध जल है । गंगा नहीं रोती । कनकम का रोना भी न तो गंगा के मन को बदलने के लिए है न सांत्वना देने के लिए । चुपचाप अकेले में कनकम बस रोती रहती है । मां बेटी दोनों इन बारह वर्षों में उन दो वर्षों को छोड़कर जब गंगा होस्टल में रही एक दिन भी अलग नहीं हुई । एक साथ ही रह रही हैं । साथ खाना खाती हैं सोते वक्‍त एक- दूसरे को देखकर सोती हैं जागते हुए एक-दूसरे पर आंखें खोलती हैं एक-दूसरे का सहारा बनी हुई हैं । उन दोनों का और कोई साथी नहीं है। इस प्रकार एकांत जीवन बिताते रहने पर भी उन दोनों के बीच एक विशाल खाई पैदा हो गयी है । जिस प्रकार गंगा लोगों और अपने रिश्तेदारों से अलग होकर रहती है उसी प्रकार अपनी मां से भी अलग होकर ही रहती है। उसे अपनी मां को मां पुकारे बारह वरस बीत गये हैं। कनकम की इतनी आयु हो गयी लेकिन उसने इन दस वर्षों में ही अच्छा और सुखमय जीवन विताया है । वहन जी थोड़ी सी यह चीज दीजिए । कहकर उसने इन दस वर्षों में किसी से कुछ नहीं मांगा । दस वर्ष पहले बिना मांगे चलता ही नहीं था । गंगा अपनी मां को सुखी रखती है । किसी दिन सवेरे जागते समय अगर कनकम खांस दे तो निश्चय ही नी बजे डाक्टर आ पहुंचते हैं। अगर कभी वह अपनी साड़ी का कोना सीती हुई दिखाई पड़े तो उस दिन शाम तक नयी साड़ी घर आ जाती । महीने के आखिरी दिन गंगा कनकम के हाथ में सी सौ के दो नोट धमा देती । फिर उसका हिसाब तक नहीं पूछती । वह जमाना बीत गया जब कनकम हाथ में बर्तन लिये साथ के किरायेदारों और पड़ोसी परिवारों में जा जाकर काफी पाउडर चीनी दाल आदि मांगती रहती थी । अब तो ऐसी सुविधा है कि जो भी मांगने के लिए आ जायें उन्हें दे सकती है। पचास बरस की उम्र में एक विधवा नारी को इससे बढ़कर और क्या चाहिए? कभी गणेश आ जाता । आधे दर्जन बच्चों के साथ तीन सौ मासिक वेतन पर त्तीस रुपये वाले मकान में रहते हुए साथ के किरायेदारों के साथ जीवन बिताने में जो जो कष्ट होते हैं उन सबका दुखड़ा रोता । फिर भी उसने यह अपेक्षा कभी नहीं की थी कि बहन के पैसों में से मां उसे कोई रकम दे दे । वैसे देने पर भी उसमें इतना आत्मसम्मान है कि उठाकर




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