युगमनु - प्रसाद | Yugamanu Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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युगमनु-प्रसाद पता न घर वालो को दिया महीनों, पीछे स्वजनों का मन समझाने को कभी होमियोप थिक श्रौषध कोई खा लेते या सिरहाने रख लेते । पता चला कब सम्बन्धो, स्वजनो को ? জন श्राखे घस चली गदो मे ! उचकीं गालो को हड्डिया ओर छातो को सारी ठठरी उभरी । शोरिषत सुखा, झोर देह हलदोी के रंग से रंग ली । प्राञ्जल श्राज्ञय, सङ्खतिश्ीला ज्ञंली, प्रदल निवेदन, मृदु समवेदन, सुस्वन, जग-जडता पर कचि का मानस-मन्थन, मागपिश्नी जगदहित दि्चि-निदशन, ऐसे उनके ग्रन्थ, सुक्तियाँ उनकी, >ज गज कानो में बसी जगत के 1... श्रोर मुझे तो कभी कभी वह उनका देव-दिव्प शिकश्ुु-सुलभ हँसी से हँसना, लाल लाल होठो का हास-नियोजन, श्रौर मन्द स्वर से गा गा कानो से कविताएँ ढालना स्मरण होते हो, छायावाही जगमग हग-तारक पर उन्ही दिनो सी कोई सन्ध्या श्राकर मुभे रमा लेती है अपने सुख में । किन्तु गृहरथी के कोलाहल सहसा मायिक भ्रावेशो के जाल बिला कर न्दी कर लेते सत्वाय मन को । हग खुलने पर पलक-पासि मल मल कर अपना सा मुँह लिये हाय, रह जाते । अब न दिखाई देगी वेसी मेधा, वसी एति-ग्यञ्जना, साधना, क्षमता । अ्रब न मिलेगा कुछ, जग को रोने से उनको स्मृति मे, क्योकि उन्होने समका




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