युगमनु - प्रसाद | Yugamanu Prasad
श्रेणी : उपन्यास / Upnyas-Novel
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
258
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)युगमनु-प्रसाद
पता न घर वालो को दिया महीनों,
पीछे स्वजनों का मन समझाने को
कभी होमियोप थिक श्रौषध कोई
खा लेते या सिरहाने रख लेते ।
पता चला कब सम्बन्धो, स्वजनो को ?
জন श्राखे घस चली गदो मे ! उचकीं
गालो को हड्डिया ओर छातो को
सारी ठठरी उभरी । शोरिषत सुखा,
झोर देह हलदोी के रंग से रंग ली ।
प्राञ्जल श्राज्ञय, सङ्खतिश्ीला ज्ञंली,
प्रदल निवेदन, मृदु समवेदन, सुस्वन,
जग-जडता पर कचि का मानस-मन्थन,
मागपिश्नी जगदहित दि्चि-निदशन,
ऐसे उनके ग्रन्थ, सुक्तियाँ उनकी,
>ज गज कानो में बसी जगत के 1...
श्रोर मुझे तो कभी कभी वह उनका
देव-दिव्प शिकश्ुु-सुलभ हँसी से हँसना,
लाल लाल होठो का हास-नियोजन,
श्रौर मन्द स्वर से गा गा कानो से
कविताएँ ढालना स्मरण होते हो,
छायावाही जगमग हग-तारक पर
उन्ही दिनो सी कोई सन्ध्या श्राकर
मुभे रमा लेती है अपने सुख में ।
किन्तु गृहरथी के कोलाहल सहसा
मायिक भ्रावेशो के जाल बिला कर
न्दी कर लेते सत्वाय मन को ।
हग खुलने पर पलक-पासि मल मल कर
अपना सा मुँह लिये हाय, रह जाते ।
अब न दिखाई देगी वेसी मेधा,
वसी एति-ग्यञ्जना, साधना, क्षमता ।
अ्रब न मिलेगा कुछ, जग को रोने से
उनको स्मृति मे, क्योकि उन्होने समका
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