हिन्दी तथा बंगला नाटको का तुलनात्मक अध्ययन | Hindi Tatha Bangla Natakon Ka Tulanatmak Adhyayan

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Hindi Tatha Bangla Natakon Ka Tulanatmak Adhyayan by रमा सेनगुप्त - Rama Sengupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी तथा वंगला नाटकों की प्रारम्भिक स्थिति रे ब्रजभाषा में रचित इन प्रारम्भिक प्रयासों को हम नाटक व नाटकीय काव्य की आख्या नही दे सक्ते क्योंकि 'नाटकीय' कहने का तात्पर्य चरित्रों का मानसिक द्वन्द,उनेका विकास, उनकी परिणति तथा उन चरित्रों के द्वारा संघर्षपूर्ण घटनाओं की दष्टि, चरम- सीमा तथा उनका स्वाभाविक कार्ये-कारण-परम्परा द्वारा नियोजित अन्त है। रामायण महानाटक' (सन्‌ १६१०), हृदयराम कृत “हनुमन्‍्तनाटक' (सन्‌ १६३२), बनारसीदास कृत 'समयसार नताटक' (सन्‌ १६३६) आदि में इस तरह की नाटकीयता का अभाव है। इन्हें हम नाटकोय-काव्य न कहकर संवादात्मक काव्य कह सकते है । यद्यपि इन ब्रजभाषा के साहित्यिक नाटकों की रचना जन-ताटय शैली में हुई फिर भी इनकी प्रमुखता इनके काव्यत्द सें है, ताटकत्व में नही । अतः ये पुष्ट नाट्य-परम्परा के प्रारम्भिक निदर्शन व प्रतिनिधि रचना नहीं । प्रयास मात्र है । महाराज यशवंतसिंह द्वारा प्रबोध-चद्धोदय' (सन्‌ १६७०) का अनुवाद, राजा लक्ष्मणसिंह्‌ हा य 'शकुन्तला (सन्‌ १८६३) का अनू- वाद, न. 7 -नन के लिए उल्लेख योग्य होते हुए भी अनुवाद ही है, मौलिक कृतियां नही । इन उदाह्रणों द्रवाय संस्कत के नाट्य-तत्वों के अनुकरण या स्वीकरण का प्रश्न नही उठता, इन्हें हम प्र रक कह सकते है । इनके सिवा देवमाया-प्रपंच, प्रभावती, रीवां नरेश विश्वताथ सिंहजू रचित आनन्द रघुनन्दन' (सन्‌ १७००), कृष्ण जीवन लच्छीराम कृत करुणाभरण सन्‌ (१६५७), रघुराम नागर कृत 'समासार' (सन्‌ १७६२) तथा भारतेन्दु के पिता गोपाज- चन्द्र कृत नहुष (सन्‌ १८५७) आदि नाटक भी ब्रजभाषा में रचित है । हिन्दी मे अभिनय की प्रेरणा से लिखे गये दो नाटक उल्लेख योग्य है । अमानतखां रचित इन्दर सभा' (सन्‌ १८५३) का अभिनय केसर बाग, लखनऊ में हुजा जिसमें वाजिदअलीशाह्‌ स्वयं इन्द्र बने । इस नाटकं की शैली जन-नाट्य-शैली है तथा यह्‌ उदर के प्रयोगो से परिपूणं है । हिन्दी के व्यक्तित्व से पूर्ण शीतलाप्रसाद त्रिपाठी रचित नाटक जानकी मंगल' (सन्‌ १८६८) फा भी अभिनय बनारस धियेटर महज किन्तु यह्‌ नाटक उपलब्ध ही नहीं है । अतः यह्‌ प्रमाणित होता है कि भारतेन्दु के पूर्वं का युभ{नो संघषहीन तथा अंध- का(राच्छन्न था, नाटक रचना के उपयुक्त नहीं था । उस युग मे जन-नाटकं प्रचलित थे तथा जन-नाटकों की शैली पर कु ब्रजभाषाके नाटकों्की सचना भी हई किन्तु उनमें काव्यत्व कै भार से नाटकत्व बोक्निल था । भारतेन्दु युग के नाटक विभिन्न नाद्‌य-सादहित्य से तत्व ग्रहण कर रहे थे, ब्रजभाषा के ये नाटक उनके बीज नहीं कहे जा सकते है । बंगला नाटकों के प्रारम्भिक प्रयास संवादात्मक काव्य नहीं थे और न केवल यह कहना संगत होगा कि विलायती ढंग पर बने थियेटरों कीश्रेरणा से पाश्चात्य शैली के नाठकों द्वारा बंगला नाट्य साहित्य का सूत्रपात हुआ । बंगाल की परिस्थिति भिन्‍न थी। एक ओर बंग के द्वार से पाश्चात्य की प्रबल शक्ति का प्रवेश हो रहा था, दूसरी ओर समुद्राभिमुख नदियों की विभक्त धाराएँ अपने तटों को नित नये रूप में मिटाती बनाती रहीं। बाढ़, दुर्धिक्ष और राजनैतिक हलचलों का विशिष्ट केन्द्र कलकत्ता रहा। अत बंगवासी जितने भावावेग से आन्दोलित होते थे उतनी ही उनकी सामाजिक-चेतना भी




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