संगीत समय सार | Sangit Samaysaar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
398
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१९
मनुष्य किसी सुखं की प्राप्ति के लिए ही किसी काय्यं में प्रवत्त होता
है । गान्धव की सिद्धि से भी परात्पर सुख की प्राप्ति होती है। इस सुख
या 'झानन्द' के प्रकार और परिमाण पर तनिक विचार श्रप्रासज्भिक न
होगा ।
आनन्द के परिमाण जौर गान्धवंके हारा भी उसको प्राप्ति
तैत्तिरीयोपनिषद् , द्वितीयवल्ली, भ्रष्टम अनुवाक के भनुसार
सदाचारी सत्स्वभाव, सत्कुलोत्पन्न, वेदज्ञ, ब्रह्मचारियों को शिक्षा देने
में कुशल, नी रोग, युवा, समथं तथा धनसम्पत्तियुक्त पृथ्वी के सम्राट् को
प्राप्त होने वाला श्रानन्द मानुष भ्रानन्ड' है । मानुष प्रानन्द की अपेक्षा
सौ गुना भ्रानन्द मनुष्य गन्धर्वो (मत्यंगन्धर्वो ) को, उसकी श्रवेक्षा सौ गुना
झ्रानन्द देवगन्धर्व (दिश्य गन्धर्वो) को, उसकी श्रपेक्षा सौ गुना भ्रानन्द
दिव्यपितरो को, उसकी भ्रपेक्षा सौ गुना भ्रानन्द प्रानानजदेवों (सृष्टि के
झ्रारम्भ में ही उत्पन्न) देवो को, उसकी अपेक्षा सौ गुना आतन्द कर्मदेयों
को उसकी भ्रपेक्षा सौ गुना आनन्द देवों को, उसकी अपेक्षा सो गुना झानन्द
न्द्र को, उसकी श्रपेक्षा सौ गुना भ्रानन्द वृहस्पति को, उसकी श्रपेक्षा सौ
गुना आनन्द प्रजापति को भौर उसकी अपेक्षा सौ गुनः भ्रानन्द ब्रह्मा को
पराप्त होता है। वही श्रानन्द “भोत्रिय' (सामवेदज्ञ) को प्राप्त होता है,
जो कामनाहीन है ।”
जो मन भ्रथवा इन्द्रिय समूहं के द्वारा भ्प्राप्त है, उस ब्रह्म के भ्रानन्द
को जानने वाला महापुरुष स्वंथा निर्भय होता है ।*
प्रयत्न के द्वारा अत्यन्त दुष्कर कार्य्य भी सुकर हो जाता है, तब भी यदि
दोष रह जाये, तो करुणासागर विज्ञ जनो के द्वारा उनका निराकरण कर
दिया जाना उचित है ॥१०॥
जिन्होने कभी कही ्रष्ययन नटी किया, ज्ञानवृद्धो कीसेवानहीकी, जो
शब्दगत शुद्धि, भाषा, अर्थ एवं भाव का दूर से ही परित्याग कर देते हैं, वे
प्राज सगीतविद कहलाते है। राग, ताल, स्वर इत्यादि विलाप कर रहे है
भगवान् वासुदेव हमारी रक्षा करें ॥१५१॥
१. “यतो वाचो निवर्तन्ते श्रप्राप्य मनसा सह ।
भ्रानन्दं ब्रह्मणो विद्धान् न विभेति कुतश्चन 11”
-तंत्तिरीयोपनिषद्, वल्ली २, भनुवाक ९
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