द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ | Dwivedi Abhinandan Granth
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
36 MB
कुल पष्ठ :
774
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अस्तावना
उस रुचि का अवेश हुआ । कविता की श्रतरग शोमा की श्रपेक्ता তা का चमत्कार सरस्वती” के पाठकों
को अधिक सेंट किया जाता था। तदनसार हि दी के उस काल के कवि भी चमत्कार की खोज करने लगे और समीक्षक
भी उस पर प्रस्ता प्रकट करने लगे। हिवेदी-काल की इस अभिरुचि का पूर्ण परिपाक आगे चल कर बाबू
मेथिलीशरण गुप्त के 'साकेत” महाकाव्य में हुआ जिसमे कथनोपकथन का चमत्कार--जिसे सभा-चातुरी कह सकते
है--विशेष मान्ना में रखा गया। समीक्षा मे उसका परिपाक लमगोडा जी की छुलसीदास-समीक्षा मे समझना चाहिए
जिसमे एक एक पक्ति का चमत्कार प्रदशित किया गया, पर काव्य की संघटित शोभा नहीं देख पडी | द्विवेदी-युग की
मनेवृत्ति के वृक्ष पर ये जो दो फूल फूले है, इनकी श्री-शोभा स्वय द्विवेदी जी को मुग्ध कर चुकी है। इनके अतिरिक्त
साहित्य के प्राय अत्येक विभाग मे कतिपय कृतविद्य लेखक ओर कवि कायं कर रहे है जिनकी कृतिर्या श्रव भी
द्विवेदी जी के आशीर्वचन से अलकृत ই रही है ।
द्विवेदी जी अपने थुग के उस साहित्यिक आदर्शवाद के जनक है जो समय पाकर प्रेमचदजी आदि के
उपन्यास-साहित्य से फूला फला । 'प्रपनी विशेषताओं और न्रुटियो से समन्वित इस आदशवाद की महिमा हमे
स्वीकार करनी चाहिए। मनष्य में सत् के श्रति जो पक्तपात रहता है, चह जब उसकी साहित्य-रचना का नियन्नण
| करने लगता है, तब साहित्य मे आदर्शवाद का छुग आता है। कभी कभी समाज की कुछ विशेष सोतियों का
समर्थन करनेवाला यह आदर्शवाद उ यह आदर्शवाद उक्त समाज की घहुजनमान्यता का ही एक-समान्न आश्रय लेकर बुद्धिजन्य संस्कार
का ह्याग कर देता है और केवल उन प्रधाओं के प्रचार की पद्धति पकड लेता है। कभी यह आदशंवाद वीर प्रजा की
प्रकृति पर प्रतिष्ठित हेकर सहत् चरित्रों का आविर्भाव करता है । आदुशवादी कभी--जैसे रामचरितसानस मे--प्रति-
स्पर्द्धीं पान्नो के काले पट पर ईष्सित नायक का उज्ज्वल चित्न भ्रकित करते है, ओर कभी---जैसे कतिपय आधुनिक पाश्चात्य
उपन्यासों मे--स्वय नायक के ही उत्तरोत्तर विकास में श्रपना आदशवाद निहित रखते है | इसकी कोई निधित प्रणाली
नहीं है, तथापि आशामय वातावरण का आलोक, उत्साहभरे उदात्त काये आदर्शवादी कृतियों में देखे और पहचाने
जा सकते है। दिविवेदी जी ओर उनके अ्रनयायियों का आदश, यदि सक्षप में कद्दा जाय तो, समाज मे एक सात्त्तिक
ज्योति जगाना था। दीनता श्रौर दरिद्रता के प्रति सहानुमूति, समय की प्रगति का साथ देना, श्ट गार के विलास-
वैभव का निपेध ये सव द्विवेदी युग के ध्रादशं है । इन्ही आरादर्शा के श्रनुरूप उस साहित्य का निर्माण हुआ जो अपनी
पूणता का श्रवलव लेकर चाहे चिरकाल तक स्थिर न रहे, परतु अ्रपनी सत्य चक्ति के कारण चिरस्मरणीय श्रवश्य
होगा । चह श्रादशं धन्य है जा हमारी व्यापक भावना का कपाट खोलकर सरस, शीतल समीर का सचार करता है और
हमारे मस्तिष्क की सत्यान्वेपिणी शक्ति का समाधान करके आत्मतृप्ति की व्यवस्था करता है । परतु जे। आदुश समय
ओऔर समाज के श्रधकार मे श्रालोक की दीपशिखा दिखाकर प्रकाश की व्यवस्था करता दहै, वह भी अपना अलग
महत्त्व रखता है । द्विवेदी जी का ऐसा छी आदुर्श था। मुक्ति ज्ञान से ही होती है, कित्ु शास्त्रों मे कर्म
ओऔर उपासना की भी विध्या विहित है । द्विवेदी-थुग को साहित्य के कर्स-योग का थुग कहना चाहिए।
साहित्य और कविता से भी श्रधिक हिवेदी जी ने भाषा, व्याकरण और पद-प्रयोगो पर विचार किया ।
प्राचीन कवियों की दोपोद्भावना” निबंध मे उन्होंने स्पष्ट-कथन की आरवश्यक्ता दिखाते हुए ॒दैश्वरचद्भः विद्यासागर,
अरविद घोष, रवीह्ुनाथ ठाकुर, चिपलूणकर आदि के जो प्रमाण दिए, हिंदी मे .उनेका भरपूर निर्वाह करनेवाले
उस काल मे स्वयं द्विवेदी जी ही थे। 'नवरत्न' की आलोचना का अधिकाश भाषा-संस्कार के विषय का है। उस
समय दिवेदी जी स्पष्ट-कथन के घद॒ले अग्निय-कथन भी कह देते थे और भ्यग्य भी उन्हे ध्रप्रिय नही थे । उनके संघटन
| च्यंग्य का एक विशेष स्थान हो गया था। कई घार उनसे और हिंदी के अन्य विद्वानों से तक-वितके भी हुआ ।
यहाँ उन प्रसगो का कोई प्रयोजन नहीं। उन अस्थायी अ्रिय घटनाओ से हमारी भाषा की वैसे ही एक स्थायी
सुष्ठ, विशेषता घन गईं, जैसे कीचड से कमल खिलता है।
“हिं दी-नवरल' तो एक उदाहरणमान्न है। लाला सीताराम-हकृत कालिदास के हिंदी पद्मानुवादो पर
द्विवेदी जी की और भी तीत्र दृष्टि पडी थी! “भारतमित्र” के बावू घालमुक॒द गुप्त, पडित गोविद नारायण मिश्च,
और द्विवेदी जी का भाषा-संबधी घिवाद कई कोटियों तक चला। फिर द्विवेदी जी ने “सरस्वती मे 'पुस्तक-
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