प्राचीन भारत में अपराध और दण्ड | Praachin Bhaarat Main Apraadh Aur Dand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) पड़ी । कोटल्य परम्परावादी सनातनी धारणा में ऋान्तिकारी परिवत्तेन नहीं करते किल्‍तु राजनीतिविज्ञान एवं ऐसे अन्य छोकिक विषयों को धर्मवाद (7160108 ) से अछग अवश्य करते हैं। सबसे प्रमुख बात है किवे साघु, भि्चु, संन्यासी एवं इस प्रकार के अन्य संगठनों के विपरीत हैं। उनके समय में आश्रम-व्यवस्था के अतिरिक्त आजीवक, निर्ग्नन्थ, चार्वाक, भिक्षु, श्रमण आदि की ऐसी परम्पराएँ बढ़ रही थीं जो समाज के ढाँचे में अनुशासनहीनता प्रस्तुत कर रही थीं । कौटल्य धर्म, अर्थ, काम में वास्तविक सन्तुलन बनाना चाहते थे। इस सन्तुलन के लिए वैदिक समाज की संस्थापना आवश्यक थी। फलत: वे इस समाज के समर्थन और इस मार्ग के विपरीत अन्य उक्त असामाजिक तत्त्व समाप्त करना चाहते थे। फलत: दंड-व्यवस्था में उन्हें कठोर दंड की व्यवस्था करनी पड़ी । कौटल्य सुख का मूल धर्म मानते ढेँ लेकिन उसके अनुभव का माध्यम उन्होंने अर्थ माना है। उस समय आथिक जगत में सामन्तवादी व्यवस्था के साथ पृंजी- बादी स्थिति का सूत्रपात हो रहा था । प्रशासन में निर्दोष सेवकों की आवश्यकता थी। विभिन्न विभागों का कोटल्य ने व्यवस्थित ढंग से संगठन किया। इसमें परम्परा से चले आने वाले समाज के ढाँचे में संशोधन की अपेक्षा हुईं। विभागीय संगठनों में उन्होंने उच्च वर्गीय व्यवस्था तो स्वीकार की किन्तु उसे ब्राह्मणों तक ही सीमित नहीं रखा । वे जिस महान्‌ आर्यावर्त्त की स्थापना कर रहे थे उसमें सशक्त राजतन्त्र कौ भी आवर्यकता थी । अतएव राजा एवं राजपरिवार के विपरीत किसी प्रकार का प्रयास वे कथमपि स्वीकार नहीं कर सकते थे । इसमें वे अत्यन्त कठोर हैं। जहाँ एक समय ब्राह्मण परिवार की सुरक्षा मुख्य थी वहाँ अब राजपरिवार की सुरक्षा आवश्यक हो गई। इसके साथ राज्य का कल्याणकारी रूप सामने रखना उनकी प्रमुख विशेषता थी। इसमें उन्होंने अंकुरित होने वाले पूंजीवादी मुल को वहीं समाप्त कर दिया। इसका प्रभाव दंड-संहिता पर इस प्रकार पड़ा कि कौटल्य को कठोर दंड का विचारक माना गया जब कि वास्तविकता यह है कि वे 'यथाहं' दंड के संस्थापक थे । उनके इस यथाहु सिद्धान्त में दंड को स्तरः के स्थान पर काय से सम्बद्ध किया गया । २ आ० द० भू?




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