धर्मामृत | Dharmamrit

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Dharmamrit  by देशभूषण महाराज - Deshbhushan Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ हो सकता । सच्चे देव में पहला गुण सर्वेज्ञत्य+ का होना आवश्यक है अर्थात्‌ जो संसार के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जान सके, क्योंकि ज्ञान का स्वभाव पदार्थों को जानता है; जब तक इस ज्ञान पर पर्दा पड़ा रहता है; तब तक उसके जानने रूप स्थभाव का লিহী- भाव या उसमें हीनाधिकता होतो है । जब ज्ञान को आवृत करने-ढकने वाले ज्ञानावरण कमं का अमाव हो जाता है तो आत्मा का पुणे ज्ञान गुण प्रकट हो जाता है; जिससे सच्चा देव संसार के समस्त पदार्थो को जान व देख सकता है । त्<वोतरागता- क्षुधा, तृषा, मय, राग, देष, मोह्‌, चिन्ता, बुढापा, रोग, मरण, पसीना, सेद, अभिमान, रति आचर्य, जन्म, नींद ओर शोक इन अठारह दोषो से रहित होना वीतरागता है । संसारी प्राणो अनादि काल से क्रोधादि कषाय, अज्ञान एवं विषय- बासनाओं के वशीभृत हैं; जिससे वे जन्म, मरण, बुढ़ापा आदि के दुःखों को भोग रहे हैं । साधारणतः उपयु क्त अठारह दोष प्रत्येक संसारी प्राणी में वर्तमान हैं, जो इन दोनों के बशीभृत है, वह सच्चा देव नहीं हो सकता । + सूक्ष्मान्तरितदूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद्‌ यथा । अनुमेयत्वतो5ग्न्पादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति: ॥५॥। “+आप्तमी मांसा-- सूक्ष्मा: स्वभावविप्रकृष्टा:। अन्तरिता: कालविप्रकृष्टा: । दूरा: देशविप्रकृष्टा: । ते च ते अर्थाण्च सुक्ष्मान्त- रितदूरार्थाः । तथा च स्वभावविप्रङृ्टा मन्त्रौपधिदक्तिचित्तादयः । कालविग्रहृष्टा, लाभानाभसुखदुः- ग्रहेण रागादय:। देशविप्रक्ृष्टा मुब्टिस्थादिद्रव्यम्र्‌। दूरा हिमवनुमन्दर मकराकरादय.। प्रत्यक्षा अध्यक्षा: प्रत्यक्षज्ञानगोचरा: कस्यचित्‌ । --आप्तमीमांसा वृत्ति अर्थ -- किसी पुरुष विशेष को सूक्ष्म ( स्वभाव से ही अदृश्य मन्त्र, औषधि-शक्ति, चित्त प्रादि) अन्तरित (कालविप्रकृष्ट लाभ, अलाभ, सुख, दुख और राग राम-रावणादि)झ्ौौर दूर-वर्ती (देशविप्रकृष्ट हिमालय, मन्दर और समुद्रादि) अर्थो' (पदार्थों) का प्रत्यक्ष होता है जिस प्रकार सवं साधारण को अनुमानसे अग्नि आदि का ज्ञान तथा प्रत्यक्ष होता है । ग्रणु आ्रादि सुक्ष्मान्तरितदूरार्थ भी निश्चित प्रमाण से प्रत्यक्ष इब भासमान होते हैं, उसी प्रकार किसी पुरुपविशेष को उक्त पदाथं भी प्रत्यक्ष होते हैं। इस प्रकार से सर्वज्ञ- विश्ववेत्ता की स्थिति है ।सर्वजञ ही दूरान्तरितविप्रकृष्ट को जानते दँ । >.क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तकभयस्मयाः । न रागद्र षमोहाइ्च यस्याप्तः सः प्रकीत्यंते ॥ --रत्नकरण्डश्नरावकाचार, इलोकं ६. भ्रय--क्षुधा, पिपासा, जरा, भय, जन्म मरण स्मयओौर राग-द्रष तथा मोह जिसे नहीं होते अर्थात्‌ जो इन से रहित है, वही प्राप्त कहा जाता है। ऐसी शास्त्रागम की मान्यता है।




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