कविता कौमुदी | Kavitaa Kaumudii
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
48 MB
कुल पष्ठ :
578
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १७ )
चूमि हाथ नाथ के लगाई रही आंखिन सों
| कही, प्रानपति ! यह् भरेति श्रनुचित है ॥
“यह अति अनुचित है” बताकर कवि ने जो स्त्री के हृदय की छठा
दिखलाई हु, वह चित्रकार नहीं दिखला सकता ।
कवि की कविता का प्रभाव स्वयं कवि के हृदय पर नहीं पडता ।
वह श्यंगार रस कौ मनोहर कविता लिखता हू । कितने ही युवक-युवती
उसकी कविता पठ कर प्रेमोन्मत्त हो जाते ह । पर स्वयं कवि उस कविता
के लिख चुकने पर निरिचन्त-सा होकर भ्रपने मामूली काम में लग जाता.
है । वह वीर-रस की कविता लिखता है । संभव है, उसकी कविता
पढकर कोई व्यक्त युद्ध में निर्भयता से प्राण दे दे । पर कवि महाशय
तो उस कविता की रचना करने के बाद शायद नहाने-धोने और खाने-
पीने में लग जाया करते हैं । वे कविता पढते-पढते युद्ध-क्षेत्र की ओर
दौड़ते हुए नहीं दिखाई पड़ेंगे। उनकी करुण और शांतिरस की ब्विता
पढकर कोई सहृदय चाहे संसार से विरक्त, राग-हेष से रहित हो जाय ।
पर कवि महाराज अपना शरीर सजाने में शायद ही कभी त्रुटि करें।
इन बातों के लिखने का अभिप्राय यह है कि कवि का हृदय जल में
कमलपत्र की तरह निलेप होता ह । उसपर उसकी ही कल्पना या
रचना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । संस्कृत के एक पंडित ने इस पर
कवि का गूढ़ परिहास करते हुए यह लिखा है--
कवि: करोति काव्यानि स्वाद् जानन्ति पण्डिता: । *
सुन्दर्या श्रपि लावण्यं पतिर्जानाति नो पिता ॥।
कवि काव्य रचता है, पर स्वाद पण्डित जानते हैं। जैसे, सुन्दरी
स््ीके लावण्य को उसका पति जानता हँ, (उत्पन्न करनेवाला)
पिता नहीं ।
कवि अपने लिए कविता नहीं रचता, दूसरों के लिए रचता है।
एकान्त स्थान में बैठकर, इन्द्रियासक्ति परित्याग करके वह सहृदय
रसिकजनों के लिए काव्य रचता है । कवि के समान परोपकारी कौन हैं !
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