कविता कौमुदी | Kavitaa Kaumudii

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Kavitaa Kaumudii by रामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) चूमि हाथ नाथ के लगाई रही आंखिन सों | कही, प्रानपति ! यह्‌ भरेति श्रनुचित है ॥ “यह अति अनुचित है” बताकर कवि ने जो स्त्री के हृदय की छठा दिखलाई हु, वह चित्रकार नहीं दिखला सकता । कवि की कविता का प्रभाव स्वयं कवि के हृदय पर नहीं पडता । वह श्यंगार रस कौ मनोहर कविता लिखता हू । कितने ही युवक-युवती उसकी कविता पठ कर प्रेमोन्मत्त हो जाते ह । पर स्वयं कवि उस कविता के लिख चुकने पर निरिचन्त-सा होकर भ्रपने मामूली काम में लग जाता. है । वह वीर-रस की कविता लिखता है । संभव है, उसकी कविता पढकर कोई व्यक्त युद्ध में निर्भयता से प्राण दे दे । पर कवि महाशय तो उस कविता की रचना करने के बाद शायद नहाने-धोने और खाने- पीने में लग जाया करते हैं । वे कविता पढते-पढते युद्ध-क्षेत्र की ओर दौड़ते हुए नहीं दिखाई पड़ेंगे। उनकी करुण और शांतिरस की ब्विता पढकर कोई सहृदय चाहे संसार से विरक्त, राग-हेष से रहित हो जाय । पर कवि महाराज अपना शरीर सजाने में शायद ही कभी त्रुटि करें। इन बातों के लिखने का अभिप्राय यह है कि कवि का हृदय जल में कमलपत्र की तरह निलेप होता ह । उसपर उसकी ही कल्पना या रचना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । संस्कृत के एक पंडित ने इस पर कवि का गूढ़ परिहास करते हुए यह लिखा है-- कवि: करोति काव्यानि स्वाद्‌ जानन्ति पण्डिता: । * सुन्दर्या श्रपि लावण्यं पतिर्जानाति नो पिता ॥। कवि काव्य रचता है, पर स्वाद पण्डित जानते हैं। जैसे, सुन्दरी स््ीके लावण्य को उसका पति जानता हँ, (उत्पन्न करनेवाला) पिता नहीं । कवि अपने लिए कविता नहीं रचता, दूसरों के लिए रचता है। एकान्त स्थान में बैठकर, इन्द्रियासक्ति परित्याग करके वह सहृदय रसिकजनों के लिए काव्य रचता है । कवि के समान परोपकारी कौन हैं !




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