ब्रजविलास | Brajvilas
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
730
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ভতীভৃঘান । - | १३
मनँ करि च्रानन्द् हलासा। ब्रजविलासको करों प्रकासा.॥
बन्दौं प्रथम कमलपद् नोके } पौवल्लभ आचरन नौके ॥ .:..
- श्रोलच्छणभटं कु वर उदारा । जन उद्धारण हित अवतारा ॥:
माया व्याधि भिटाय अनेका । कियो प्रेम मारग दृटृ एका ॥ `
श्रोगोकुलबर्सि सुख उपजायो। रुषश्ण नामको दान चलायो ॥
विरहानंलमें सुभग शरोरा। वारौ प्रेम सिन्धु गोरा ॥
हरिप्रापतिको रोति बताई । विरह रूप करि प्रगंट दिखाई ॥
विरह भर्पो जिनको सब नेमा | विरहरूप करि जिनको प्रेमा ॥
- विरहे भरो भक्ति विस्तारी। ताते गोछुल गेल निहारी ॥ `
द्रपरततु धरि सुर्नहित, कुष्ण सहारे दुष्ट । ` .
श्रोवद्धभ वए घरि कियो, प्रं मपथ्य कलि पष्ट ॥ . ` `
:. मनं वच.क्रमसों चित्त, भरोवज्ञभम चरणनलग्यो । -.
-वहौ आश्र वहि वित्त, बहि साधन.वहि युक्तफल ॥ `
एनि श्रौवल्भक्षलहि मनाऊं । चरणकमल तिनके शिरनाऊं ॥
श्रोगोकलमें जिनको धामा-। विश्व विदित सुन्दर गुण ग्राम ॥
` प्रेम भक्तिकौ ज्योति विराजे । तेज प्रताप जगतपर राजे ॥ `
जिनके सदन देखिये ऐसे नन्द् महरि सुनिथत जैसे॥ `
तहां रुक नित नवलोला । बाह विनोद् भरो सुखशला ॥
तिनकी शरण जोव जो आवे। तो दृढ़ भक्ति छष्शको पांवे॥ `
'देत श्रवणसग अति सुखदांई। कृष्ण नाम रस सुधा पियाई ॥
भक्ति दानकोी परम उदारा। जगत विदित श्रोगोकुलद्वारा ॥
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