ब्रजविलास | Brajvilas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ভতীভৃঘান । - | १३ मनँ करि च्रानन्द्‌ हलासा। ब्रजविलासको करों प्रकासा.॥ बन्दौं प्रथम कमलपद्‌ नोके } पौवल्लभ आचरन नौके ॥ .:.. - श्रोलच्छणभटं कु वर उदारा । जन उद्धारण हित अवतारा ॥: माया व्याधि भिटाय अनेका । कियो प्रेम मारग दृटृ एका ॥ ` श्रोगोकुलबर्सि सुख उपजायो। रुषश्ण नामको दान चलायो ॥ विरहानंलमें सुभग शरोरा। वारौ प्रेम सिन्धु गोरा ॥ हरिप्रापतिको रोति बताई । विरह रूप करि प्रगंट दिखाई ॥ विरह भर्पो जिनको सब नेमा | विरहरूप करि जिनको प्रेमा ॥ - विरहे भरो भक्ति विस्तारी। ताते गोछुल गेल निहारी ॥ ` द्रपरततु धरि सुर्नहित, कुष्ण सहारे दुष्ट । ` . श्रोवद्धभ वए घरि कियो, प्रं मपथ्य कलि पष्ट ॥ . ` ` :. मनं वच.क्रमसों चित्त, भरोवज्ञभम चरणनलग्यो । -. -वहौ आश्र वहि वित्त, बहि साधन.वहि युक्तफल ॥ ` एनि श्रौवल्भक्षलहि मनाऊं । चरणकमल तिनके शिरनाऊं ॥ श्रोगोकलमें जिनको धामा-। विश्व विदित सुन्दर गुण ग्राम ॥ ` प्रेम भक्तिकौ ज्योति विराजे । तेज प्रताप जगतपर राजे ॥ ` जिनके सदन देखिये ऐसे नन्द्‌ महरि सुनिथत जैसे॥ ` तहां रुक नित नवलोला । बाह विनोद्‌ भरो सुखशला ॥ तिनकी शरण जोव जो आवे। तो दृढ़ भक्ति छष्शको पांवे॥ ` 'देत श्रवणसग अति सुखदांई। कृष्ण नाम रस सुधा पियाई ॥ भक्ति दानकोी परम उदारा। जगत विदित श्रोगोकुलद्वारा ॥




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