भजन संग्रह | Bhajan Sangrah

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Bhajan Sangrah by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुस्ताई तुलसीवासजी ५ (४) राग विराव ते नर नरकरूप जीवत जग, भवभश्चन-पद-विभुल अभागी । निसिबासर रुचि पापथसुचि मन, खल मति मलिन निगम-पथ त्यागी ॥ १॥ नहिं सतसङ्, मजन नदिं हरिको, स्वनन्‌ रामकथा अनुरागी | सुत-वित.दार-मधन.ममता-निसिः सोचत भतिन कबहु मति जागी ॥२॥ तुरसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ,हृठि पियत बिषय-बिप माँगी । सूकर-स्वान-सुगाल-सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी ॥३॥




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