हीरक प्रवचन [भाग १०] | Heerak Pravachan [ Vol. - 10 ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2 श्रोलीतप 1 হ किसी की चाल तेज भर किसी की धीमी थी । अतएब जो साधु অহা था, सुखास्त होने पर बह वई यृ के नीचे ठहर गया! उख रात्रि में बढ़ी ही भयानक सर्दी पड़ी। जो साधु वैभारगिरि पर हहरे थे, उन्होंने प्रथम प्रहर में ही सर्दी के कारण ইহ হান दिया । दूसरे मुनि पहाड़ के लीचे थे, उसका दूसरे प्रहर में स्थर्ग- पास ह्लो गया। तीसरे मुनि नगर ओर पहाड़ के बीच में थे । एनक्षा तीसरे प्रहर में देद्ान्त दो गया। चोथे साथु नगर के ऋुछ निकट जा पहुँचे थे, उत्तछा चोथे प्रहर में स्वगेचास हो गया । হুল प्रकार उन तपोधन मुतियों ते शरीर का स्याम रना सहत किया, परन्तु अम्ति का सेघत नहीं किपा | पद है साधु की चया । साधु ने पूर्ण अहिंसा का पालन फरने देः लिए 'अन्निष्ाय के ऋारम्भ का स्याग डिया है। अतएब घाहे जैसी परिस्पित एयों त हो, घह अपने स्वाग पर घटल रह पर ही सापता करता ই ছল তম में सफलता प्राप्त करने के लिए एस प्रकार को इृढ़ता अतिवाये है। हृहतापूतरक्न संक्प पर सटल रह बिना लोकिक सिद्धि भो नहीं प्राप्त होदो तो लोछेत्तर (না তা সার হী दी ऐसे सकती है । सारय यह ऐँ कि डिएतो हो सर्दी क्‍यों न पड़ रही ছা, सच्ये साधक दा यही छत्तेज्य होता है कि बह अपना ल्य घाताफो चोर ही रस्खे घोर यह समझे কি ই গামা




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