श्री भक्तामर | Shri Bhaktamra

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Shri Bhaktamra by ईश्वरलाल सैगानी - Ishwarlal Saigani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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এ हे साकला में दनए शरीर को क्सवायर वदीयूृह की कोठरी सम বল ৬ कर दिया । पररेटाय को 'अज्ञा दी कि पूरा इन्तताम रक्‍्खां आर मई चात होते सो उसी समय सूचित क्रां । गुश्दैय मौन ये । सम्मयत वे वारह मावनाध्रा का चितवन कर रहे होंगे। पर्याय एक समय के लिये भी स्थिर नहा रहती | सय 'अपने अपने किये हुये कर्मों का फल मोगते हैं । काइ सुख दुग्म नह देता] जव तक शरीर से ममत्य है, तव तक ससार अमण नहा छूटता। मैं अपने कमा কা स्य क्‍ता भोता हूँ। किन्तु ये द्रव्य कर्म और शरीर मुझ से मिल हैं। शगीर प्रदुगल है, यह द्वाढ, मास, मज्ना, मल मूत्र का भण्डार दे । इसमें काई ऐसी चीन नही ६ कि जिंसस मोद क्या जाय। यह ठौ मय धृणाप्पद दै । उपयु क्ष एव श्चन्य रूपा से गुण्देव ने चिन्तयन करते हय, शरीर फी श्चसदनीय वेदना से परिचित न होकर शुद्धात्म भ्परूप का ध्यान किया । इस प्रकार शरीरादिक कष्ट के कारश नहा है। पूर्य झुत कर्म उदय में आकर ग्पिर्ते रहत । नगर में सबर --श्री गुरूदेय क बादी की खबर सार शहर में चिनली की तरह फन गड 1 जँनिया के घें में चूहे नहीं जले] उनके हृदय मे अग्नि धधकनेलगी। शहर में सवन्न यही चर्चा थीं। काफी दो” घृप थी। बड़ा ही जटिल प्रश्न था। राना अपनी हृठ पर है, मुनि अपन घर्म पर । दाना ही अटल है। समभटाग हैं। क्सिसे क्‍्ट्टें। मारी राशि जिचारा में निकल गइ | मुनि की दृता-राता न रात्रि में अनेका बार अपने विश्वासी सेवकों को भेचकर तल्लाश क्या | साधु अरल थे । उद श्रत्यधिक शारीरिक वश्ना विगलित करने म श्रसमर्थं रही। राजा को अपनी भूल ससटकन लगी। भौतिक शक्ति और आत्मिक शक्ति में घोर सम्राम ठना हुआ था ॥ग्रात काल शहर के अनेक प्रतिष्ठित चन रात्रा द्वार पर आय । द्वारपाल से मालुम हुआ कि मुनि अचल दूं । मद्दाराव ने अनर्का बार भुनि की अवस्था क्षानमे কি ~ क = श श 3




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