श्री चन्द्रावली नाटिका | Shri Chandrawali Natika

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Shri Chandrawali Natika by जयशंकर त्रिपाठी - Jayashankar Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १५ अभिनय की परम्परा में लोक-रुचि का निर्वाह है। नाटक और अभिनय का जन्म ही इस लोक-हचि के बीव हश्ना । এ भरत ने नाख्यशास्त्र मे ग्राम्य मं की जिस प्रकृति का उल्लेख किया है, उस प्रकृति का सँवारा हुआ रूप #गार-रस मे डूवी प्रेम कव्रा्नों मे मिलता था; इन प्रेम-क्थाओं से ही लोक-प्रभिनय की शुरुप्रान हुई । भरत ने वेदो से ग्रहण किथे गये नाय्यके जिन चार तच्वौ का उत्लेव किया है-- संवाद. गीत, ग्रभिनय ओ्रौर रस, इने तत्वों से नाटक पुरा नही होता है, जब तक उसमे कथा का कोई माध्यम नहो! इस प्रकार नास्ववेदकी प्रथम पृरोता एकं साथ ग्राम्य धर्म (लोक की प्रेम कथाओ) श्रौर देव धमे (सवाद, गीत अभिनय और रस-तत्त्वो ) के सम्मिलित प्रतिनिधित्व मे हुई । नाटक कोवेदकाश्रग चनाने के लिए भी, जिससे वह ऊँची शास्त्रीय प्रतिष्ठा का भाजन बने, चार तत्वों का श्राकलन हुआ । परन्तु ये चार तत्त्व नाठक का कुछ भी उपकार नही कर सकते जब तक उसमे कथा का माध्यम न हो। दशरूपक' कार धनञ्जय (१ दी पूर्वाधं शती विक्रमी) ने वस्तु, नेता और रत को रूपको के भेद का आधार माना है 1र यह वस्तु श्र्थात्‌ कया नाटक के लिए प्रथम उपादान है और ग्राम्य धर्म की देन है। ग्राम्य की लोफ़प्रिय कथाएँ अनुकरण की जा कर धीरे-बीरे नाटक के रूप में सामने आई । फिर कथा के माध्यम से ही तो सवाद, अ्रभिनय, रस और नेता की अवतारणा होती है । धनञ्जय ने वस्तु का नाम १ नाख्यशास्त्र अध्याय १ । १६ एव सद्धट्प्य भगवान्‌ सवं वेदाननुस्मरन्‌ । नाख्यवेद ततङ्चक्रे चतुरवेदाद्धसम्भवम्‌ ॥ २. दराल्पक १ ॥' ११ वस्तु नेता रसस्तेषा भेदक वस्तु च द्विधा । तत्राधिकारिक् मुख्यमङ्ध प्रासद्धिकं विदु ॥




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