जाति, संस्कृति और समाजवाद | Jati Sanskriti Or Samajavad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
110
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पृमूमि र ও
सकती हूं। जाति ही उस सबका निर्णय करती हैँ। कभी-कभी तो
हमारा विवाह बचपन में हो हो जाता है। ऐसा क््यों?--क्योंकि
जाति का कहना है कि जब इनका विवाह बिना इनकी सम्मति
के ही होना है, तो यह विवाह छोटी आयु में ही हो जाना बेहतर
हैं।...तुम कहोगे, “ओह ! सुख-भोग का बहुत सा अवसर वे खो
डालते हैँ; पुरुष को स्त्री से प्रेम करते समय और स्त्री को पुरुष
से प्रेम करते समय जो अपूर्व भावों का अनुभव होता है, उसे वे
खो डाछते हैं...” पर हिन्दू कहता हैँ, “हम तो सामाजिक हैं।
एक पुरुष के या एक रुप्री के अपूर्व आनन्द के लिए हम सगाज के
सैकड़ों व्यवितयों पर दु ख का भार नहीं डालना चाहते 1“
हमारी जातियाँ और हमारी संस्थाएँ हमें एक राष्ट्र के
रूप में सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक रही है। और जब इस
आत्मरक्षा की आवश्यकता नही रहेगी, तब ये स्वाभाविक रूप से
नष्ट हो जाएँगी । पर ज्यो-ज्यों मे बड़ा होता जा रहा हूं, त्यों-त्यों
भारतवर्प को इन प्राचीन संस्थाओं को अधिक अच्छी तरह
समझता जा रहा हूँ। एक समय ऐसा था कि में इनमें से बहुतों
को व्यर्थ और तिरुपयोगी समझता था; पर जैसे-जैसे में बड़ा हो
रहा है, वसे-बैसे ही में उनको दूषित बताने का साहस नहीं कर
सकता; क्योंकि उतमें से प्रत्येक कई शताब्दियों के अनुभव का
मूर्तिमान रूप है।
* केवल करू का छोकरा, जो परसों निश्चय ही मरनेवाल्ा
है, मुझसे आकर कहता हैं कि तुम अपने सब कार्यक्रम बदल डालो ।
और यदि में उस बच्चे की बात फो मानकर थपनी समी परि.
स्थितियों को उसके विचारों के अनुसार बदल डाल, तो में ही
मूर्ख बनूगा, और दूसरा कोई नहीं। বিশিল ইহা से जो सलाह
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