जंगली सुअर | Jungali Suar

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Jungali Suar by मधुकर सिंह - Madhukar Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शारा दिन उसा वित्त बेचैन रहा 1 घूमते हुए मन्दिर पर अतायास हो चला भाया। वहीं कमेर के गाछ थे, चिर परिधित और अत्यन्त हो आत्मीय । जब सनीचर पबड़ाता या, तो यहीं आता था। पुजारो जो किस्सा-कहानियों में उसका सन शहसा देते ये ! पुजारो जी आबिर कहां हैं? मर हो नहीं गए हैं? अनेर माछ धो वहो हैं । वही रोले-पीले फूल और रमपरतियां दादी की किस्सा-कहानिया। सब गुछ याद है सनीचर सिंह को। यहा तक कि पुजारी षी भी सब कुछ भूलकर रमपतिया दादी के साथ थटों बैठे रहते थे। रमपतिया दादी कहती শী, খাতা विक्रमादित्य राम-सष्मण-- लव कुश, एक-पे-एक भदकर कथा । सनौर सौर उसके साथ के कई लड़के रमपतिया दादी को चारो तरफ से घरकर बढ जाते, ह, दादी । हव इसके बाद कया हुआ ? सुत मेरे राम। सुन मेरे लछमन।'*'इघर गोद मे बेठ मेरे राज! विकरणाजीत ६-*“ पत्त; सह रपपत्तिपा दादी जिन्दा है या मर गई है । मर गई होगी। जहर मर गई होगी सनीचर चित लेट गया है और कनेर फूल टपक रहे हैं, सनीचर के सपनो की तरह। किसी से बगल में पूछा है, रम- पतिया दादी देस साल पहले ही इस दुनिया से चल बसी थी; लेकिन पुजारी जी अभी तक जी रहे हैं। कही गए ये । सरीचर की आंखें तब से उन्हे खोज रही थी। सीढिया चढ़ते हुए बड़ाऊं की आवाज हुई | पुजारी जी ही होंगे। सनीचर उठकर देठ गया। पुजारी जी ही थे, एकदम जर्जर और बूढ़े । सिर और दाड़ी के लम्बे वाल एकदम परवेत हो बरए थे, जो आकाश की तरह विशाल और अनन्त थे। समीचर ने दौडकर चरण छूए। “मुझे पा चल गया था कि सनीचर, तुम कई दिलो से गांव हे १७ जयली सुभर--२




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