सुदर्शनचरितम् | Sudarshancharitam

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Sudarshancharitam by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हीरालाल जैन - Heeralal Jain

Add Infomation AboutHeeralal Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रस्याक्ना স্ব अनेक शाखाएँ स्थापित हुईं ज॑से कारंजा व जेरहुटमें सं० १५०० के जयभन्न, उत्तर भारत की कुछ झाखाएँ सं० १२६४ के लगभग, दिल्ली, जयपुर, ईडर व सूरत झाखाएँ सं० १४५०, नाभोर व अंटेर सं० १५८०, भातपुरमें सं० १५३० के लगभग तथा लातूरमें सं० १७०० के लगभग शाखाएँ स्थापित हुईं । प्रस्तुत अन्यमें बलात्कारगणके जिन आचायोंक्रा उल्लेख पाया जाता है वे उत्तर भारत तथा सुरतको शाखा में हुए पाये जाते हैं। उत्तरकी झाखामें সমা- चन्द्रका काल सं० १३१० से १२८५ तक और पद्मनन्दिका सं० १३८५ से सं० १४५० तक प्रमाणित होता है । पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीतिने सूरतको क्षाखाका प्रारम्भ किया । उनका सबसे प्राचोन उल्लेख सं० १४९९ वेशाख कृष्ण ५ का उनके द्वारा स्थापित एक मुत्तिपर पाया गया हैं। उन्होंके पदु-शिष्य शस्तुत प्रन्थके कर्ता विद्यानन्दि हुए; जिनके सम-सामयिक उल्लेख उनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी मूतियों पर सं० १४९९ से सं० १५३७ तक पाये गये हैं ( भट्टा० सम्प्र० क्र० ४२७-४३३ ) । विद्यानन्दिके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी कोई वृत्तान्त प्रन्य-प्रशस्तियों या अन्य लेखोंमे नहीं पाया जाता। केवल एक पट्टावलो ( जे० सि० भास्कर १७ पृ० ५१ ये भट्ठा० सम्प्र० क्र० ४३९ ) में अष्टशाखा-प्राग्वाटवंशावतंस तथा 'हरिराज- कुलोद्योतकर' कहा गया है जिससे ज्ञात होता हैँ कि वे प्राग्वाट ( पौरवाड ) जाति के थे, तथा उन के पिता का नाम हरिराज था। पौरवाड जाति में अथवा उस के किसी एक वर्ग में आठ शाखो की मान्यता प्रचलित रहो होगी, ज॑सा कि परवार जाति में भी पाया जाता है । प्राग्वाट जाति का प्रसार प्राचीन कालसे गुजरात प्रदेशमे पाया जाता है । इसी प्रदेश की प्राचोन राजधानी श्रीमाल (आधुनिक भीनमाल थी) जो आबुके प्रसिद्ध जैन मन्दिर ब्मिलवसद्दीके निर्माता प्राग्बाटबंसोय मंत्री विमर्दक पैत्रिक विदास स्थान था । इस प्राग्वाटजातिसें विल्यानन्दिके गुरु भट्टारक देवेन्द्र- कीतिका विद्येष मान रहा पाया जाता है। उन्होंने पोरपाटावबको अश्शालावाले एक श्रावक द्वारा संबत्‌ १९९३ में एक जित मृतिकी स्थापना करायो थी ( भट्ठा० उन्थ० ४२५ ) संबत्‌ १६४५ में धर्मकीति द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तिपर নাহ




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now