श्रीनिवास ग्रंथावली | Shreenivas Granthvali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) धग्रो हो | यह भी समय की खूबी है, जिस देश में इस बिद्या का प्रथम प्रथम प्रादुर्भाव भया और संगीत-साहित्य परिपक्क होकर पृथ्वी भरम व्याप्त गये, आज वहीं के निवासी नाटक का नाम मौ नहीं जानते > > ( नाटक ) खेल्लना तो दूर रहे, जो नाटक रे या अभिनय करे वह ह स्यास्पद्‌ गिना जाता है. यह केवर कल्पना द्वारा लिखी बात नहं प्रव्यक्च सत्य है क्योकि बालकृष्ण भट्ट को एक नाटक में युधघिष्टिर का अभिनय करने के अपराध में उनके पिता जी ने उन्हें घर से निकाल दिया था। १७ अगस्त १८७८ के “कविवचन सुथा' में भारतेन्दु ने 'नाटक' शीर्षक छेख में लिखा था : अब के लोगों को नाटक के अनुशीलन वा अ्नुकरण करने में उत्साह नहीं होता बरन इसको तुच्छु ओर बुग समझ के इससे दूर भागते हैं ओर नाटक करनेवाले चतुरों को लोग साधारण ढोल बजानेवाले नट जानकर इस काम में अपनी घृणा प्रकाश करते हैं, परंतु बड़े शोच की बात है कि जो सबसे श्रच्छी बस्तु है ओर जिसके करनेवाले लोग महा सभ्यता के निकेतन है इन्हीं दोनों बातों में देश के कुसंस्कारसे लोगों को श्ररुचि हो गई : नाटकों के प्रति जनता में जब इतनी भयंकर घुणा और अरुचि फैली इदं थी उस समय भारदेन्दु युग के लेखकों ने बड़े उत्साह से नाटक के गुण गाकर इसके प्रचरन का -अथक प्रयास करिया । नाटक-प्रचरून के इस पुण्य कार्य में सबसे बड़ा योगदान स्वयं भारतेन्दु का था। अपने 'नाटक' शीर्षक छेख मे उन्होने नाटक की महत्ता ओर उपयोगिता का परिचय इस प्रकार दिया था : नाटकों का श्रभिनय करना অন্তর जनों के समाज को कितनी प्रीति देने वाला, देश की कुचालों को सुधारने वाला और केषा कुशल




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