अतृप्ता | Atripta

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Atripta by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रतुप्ता १७ मन में कुछ भी नही है फिर भी सहज उत्सुकतावश म भी खिडकी पर खडी होकर देखने लगी और सुना, सुरेश की मा कह रही है, “मुझे तो रिश्ता मजूर है जितेन्द्र वेटा, श्रव लगन निकलवाग्रो 1” सुनकर चाचीजी ने हाय जोड दिए ्रौर ही-दी कर हस दी, मानो चिल्ली नै मैदान मार लिया हौ । बडे दादा बोले, “जी, मैं शीघ्र ही सूचना पभ्जवाऊगा ।” वे लोग चले गए। बाहर दरवाज़े पर और आसपास समूचे बगीचे 'पर अन्वकार फैला हुआ है। पोर्च मे रोशनी है परन्तु वहुत घीमी | मन में निराशा, वातावरण उदास । तभी बड़े दादा का प्रसन्तता-भरा स्वर सुनाई दिया, “चाची, हमारी सुनीता को देखकर कोई न कह भी कंसे सकता हैँ? चाचीजी को शायद मेरी प्रश॒सा श्रच्छी नही लगी, वोली, “नही, नहीं, ये लोग जानते हँ कि सुनीता के नामके तीस हजार रुपये के कंश-सरिफिकेट সু । सुनीता काली भी रहती तो भ्राज उन्हे नापसन्द नही होती 1” चाचीजी की बात सुनकर अवाक्‌ रह गई | मुझे इस रहस्य का आज ही पता चला | बड़े दादा बोले, “हा चाची, तुम ठीक कहती हो, मैं तो भूल ही गया था। सुरेश के पिता वाबूजी के तिकटतम मित्रो मे से हैं, वे लोग जानते हैं कि मरने से पहले पिताजी ने सुनीता के लिए तीस हजार के कैश- सर्टिफिकेट लिए जिनकी श्राज पैंतालीस हजार के लगभग कीमत है। हा, एक बात ओर, सुनीता को यह सब मालूम नहीं है और वच्चो को ऐसी बात जाननी भी नही चाहिए ।” “यह तुमने ठीक कहा जितेन्द्र, सुनीता श्रव चौवीस वर्ष की है, वयस्क हो गई है। यदि उसे मालूम हो जाए कि उसके पास कुछ पैसा है तो वह अवश्य उस दिनेश के****** ॥ “वस, वस, मै सम गया, उसकी तुम चिन्ता न करो । विवाह होने से पहले वह कभी यह रहस्य जान नही पाएगी । ऐसे जितना उसके व्याह मे खर्च होगा उतने मे ही काम निपट जाएगा और विवाह के उपरान्त तो




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